Sunday, May 27, 2012

दलित मसीहा के रूप में वीर सावरकर


(२८ मई को वीर सावरकर जयंती पर विशेष रूप से प्रचारित)
क्रांतिकारी वीर सावरकार का स्थान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना ही एक विशेष महत्व रखता हैं. सावरकर जी पर लगे आरोप भी अद्वितीय थे उन्हें मिली सजा भी अद्वित्य थी. एक तरफ उन पर आरोप था अंग्रेज सरकार के विरुद्ध युद्ध की योजना बनाने का, बम बनाने का और विभिन्न देशों के क्रांतिकारियों से सम्पर्क करने का तो दूसरी तरफ उनको सजा मिली थी पूरे ५० वर्ष तक दो सश्रम आजीवन कारावास. इस सजा पर उनकी प्रतिक्रिया भी अद्वितीय थी की ईसाई मत को मानने वाली अंग्रेज सरकार कबसे पुनर्जन्म अर्थात दो जन्मों को मानने लगी. वीर सावरकर को ५० वर्ष की सजा देने के पीछे अंग्रेज सरकार का मंतव्य था की उन्हें किसी भी प्रकार से भारत अथवा भारतियों से दूर रखा जाये जिससे की वे क्रांति की अग्नि को न भड़का सके.वीर सावरकर के लिए शिवाजी महाराज प्रेरणा स्रोत थे. जिस प्रकार औरंगजेब ने शिवाजी महाराज को आगरे में कैद कर लिया था उसी प्रकार अंग्रेज सरकार ने भी वीर सावरकर को कैद कर लिया था. जैसे शिवाजी महाराज ने औरंगजेब की कैद से छुटने के लिए अनेक पत्र लिखे उसी प्रकार वीर
सावरकर ने भी अंग्रेज सरकार को पत्र लिखे. पर उनकी अंडमान की कैद से छुटने की योजना असफल हुई जब उसे अनसुना कर दिया गया. तब वीर शिवाजी की तरह वीर सावरकर ने भी कूटनीति का सहारा लिया क्यूंकि उनका मानना था अगर उनका सम्पूर्ण जीवन इसी प्रकार अंडमान की अँधेरी कोठरियों में निकल गया तो उनका जीवन व्यर्थ ही चला जायेगा. इसी रणनीति के तहत उन्होंने सरकार से मुक्त होने की प्रार्थना करी जिसे सरकार द्वारा मान तो लिया गया पर उन्हें रत्नागिरी में १९२४ से १९३७ तक राजनितिक क्षेत्र से दूर नज़रबंद रहना पड़ा. विरोधी लोग इसे वीर सावरकर का माफीनामा, अंग्रेज सरकार के आगे घुटने टेकना और देशद्रोह आदि कहकर उनकी आलोचना करते हैं जबकि यह तो आपातकालीन धर्म अर्थात कूटनीति थी.
मुस्लिम तुष्टिकरण को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार ने अंडमान द्वीप के कीर्ति स्तम्भ से वीर सावरकर का नाम हटा दिया और संसद भवन में भी उनके चित्र को लगाने का विरोध किया. जीवन भर जिन्होंने अंग्रेजों की यातनाये सही मृत्यु के बाद उनका ऐसा अपमान करने का प्रयास किया गया.उनका विरोध करने वालों में कुछ दलित वर्ग की राजनीती करने वाले नेता भी थे जिन्होंने अपने राजनैतिक मंसूबों को पूरा करने के लिए उनका विरोध किया था.दलित वर्ग के मध्य कार्य करने का वीर सावरकर का अवसर उनके रत्नागिरी आवास के समय मिला.८ जनवरी १९२४ को जब सावरकर जी रत्नागिरी में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने घोषणा करी की वे रत्नागिरी दीर्घकाल तक आवास करने आए हैं और छुआछुत समाप्त करने का आन्दोलन चलाने वाले हैं.उन्होंने उपस्थित सज्जनों से कहाँ की अगर कोई अछूत वहां हो तो उन्हें ले आये और अछूत महार जाती के बंधुयों को अपने साथ बैल गाड़ी में बैठा लिया. पठाकगन उस समय में फैली जातिवाद की कूप्रथा का आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं की किसी भी शुद्र को स्वर्ण के घर की ओसारी में भी प्रवेश वर्जित था. नगर पालिका के भंगी को नारियल की नरेटी में चाय डाली जाती थी.किसी भी शुद्र को नगर की सीमा में धोती के स्थान पर अगोछा पहनने की ही अनुमति थी. रास्ते में महार की छाया पड़ जाने पर अशौच की पुकार मच जाती थी. कुछ लोग महार के स्थान पर बहार बोलते थे जैसे की महार कोई गली हो. यदि रास्ते में महार की छाया पड़ जाती थी तो ब्रह्मण लोग दोबारा स्नान करते थे. न्यायालय में साक्षी के रूप में महार को कटघरे में खड़े होने की अनुमति न थी. इस भंयकर दमन के कारण महार जाती का मानो साहस ही समाप्त हो चूका था.
इसके लिए सावरकर जी ने दलित बस्तियों में जाने का, सामाजिक कार्यों के साथ साथ धार्मिक कार्यों में भी दलितों के भाग लेने का और स्वर्ण एवं दलित दोनों के लिए लिए पतितपावन मंदिर की स्थापना का निश्चय लिया गया जिससे सभी एक स्थान पर साथ साथ पूजा कर सके.
१. रत्नागिरी प्रवास के १०-१५ दिनों के बाद में सावरकर जी को मढ़िया में हनुमान जी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का निमंत्रण मिला. उस मंदिर के देवल पुजारी से सावरकर जी ने कहाँ की प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम में दलितों को भी आमंत्रित किया जाये जिस पर वह पहले तो न करता रहा पर बाद में मान गया. श्री मोरेश्वर दामले नामक किशोर ने सावरकार जी से पूछा की आप इतने इतने साधारण मनुष्य से व्यर्थ इतनी चर्चा क्यूँ कर रहे थे? इस पर सावरकर जी ने कहाँ की “सैंकड़ों लेख या भाषणों की अपेक्षा प्रत्यक्ष रूप में किये गए कार्यों का परिणाम अधिक होता हैं. अबकी हनुमान जयंती के दिन तुम स्वयं देख लेना .”
२. २९ मई १९२९ को रत्नागिरी में श्री सत्य नारायण कथा का आयोजन किया गया जिसमे सावरकर जी ने जातिवाद के विरुद्ध भाषण दिया जिससे की लोग प्रभावित होकर अपनी अपनी जातिगत बैठक को छोड़कर सभी महार- चमार एकत्रित होकर बैठ गए और सामान्य जलपान हुआ.
३. १९३४ में मालवान में अछूत बस्ती में चायपान , भजन कीर्तन, अछूतों को यज्योपवित ग्रहण, विद्याला में समस्त जाती के बच्चों को बिना किसी भेदभाव के बैठाना, सहभोज आदि हुए.
४. १९३७ में रत्नागिरी से जाते समय सावरकर जी के विदाई समारोह में समस्त भोजन अछूतों द्वारा बनाया गया जिसे सभी सवर्णों- अछूतों ने एक साथ ग्रहण किया था.
५. एक बार शिरगांव में एक चमार के घर पर श्री सत्य नारायण पूजा थी जिसमे सावरकर जो को आमंत्रित किया गया था. सावरकार जी ने देखा की चमार महोदय ने किसी भी महार को आमंत्रित नहीं किया था. उन्होंने तत्काल उससे कहाँ की आप हम ब्राह्मणों के अपने घर में आने पर प्रसन्न होते हो पर में आपका आमंत्रण तभी स्वीकार करूँगा जब आप महार जाती के सदस्यों को भी आमंत्रित करेंगे.उनके कहने पर चमार महोदय ने अपने घर पर महार जाती वालों को आमंत्रित किया था.
६. १९२८ में शिवभांगी में विट्टल मंदिर में अछुतों के मंदिरों में प्रवेश करने पर सावरकर जी का भाषण हुआ.
७. १९३० में पतितपावन मंदिर में शिवू भंगी के मुख से गायत्री मंत्र के उच्चारण के साथ ही गणेशजी की मूर्ति पर पुष्पांजलि अर्पित की गयी.
८. १९३१ में पतितपावन मंदिर का उद्घाटन स्वयं शंकराचार्य श्री कूर्तकोटि के हाथों से हुआ एवं उनकी पाद्यपूजा चमार नेता श्री राज भोज द्वारा की गयी थी. वीर सावरकर ने घोषणा करी की इस मंदिर में समस्त हिंदुयों को पूजा का अधिकार हैं और पुजारी पद पर गैर ब्राह्मन की नियुक्ति होगी.
इस प्रकार के अनेक उदहारण वीर सावरकर जी के जीवन से हमें मिलते हैं जिससे दलित उद्धार के विषय में उनके विचारों को, उनके प्रयासों को हम जान पाते हैं. सावरकर जी के बहुआयामी जीवन के विभिन्न पहलुयों में से सामाजिक सुधारक के रूप में वीर सावरकर को स्मरण करने का मूल उद्देश्य दलित समाज को विशेष रूप से सन्देश देना हैं जिसने राजनितिक हितों के लिए स्वर्ण जाति द्वारा अछूत जाति के लिए गए सुधार कार्यों की अपेक्षा कर दी हैं और उन्हें केवल विरोध का पात्र बना दिया हैं.

डॉ विवेक आर्य


Friday, May 11, 2012

हल्दीघाटी / त्रयोदश सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय

कुछ बचे सिपाही शेष¸
हट जाने का दे आदेश।
अपने भी हट गया नरेश¸
वह मेवाड़–गगन–राकेश।।1।।




बनकर महाकाल का काल¸
जूझ पड़ा अरि से तत्काल।
उसके हाथों में विकराल¸
मरते दम तक थी करवाल।।2।।


उसपर तन–मन–धन बलिहार
झाला धन्य¸ धन्य परिवार।
राणा ने कह–कह शत–बार¸
कुल को दिया अमर अधिकार।।3।।


हाय¸ ग्वालियर का सिरताज¸
सेनप रामसिंह अधिराज।
उसका जगमग जगमग ताज¸
शोणित–रज–लुiण्ठत है आज।।4।।


राजे–महराजे–सरदार¸
जो मिट गये लिये तलवार।
उनके तर्पण में अविकार¸
आंखों से आंसू की धार।।5।।


बढ़ता जाता विकल अपार
घोड़े पर हो व्यथित सवार।
सोच रहा था बारम्बार¸
कैसे हो मां का उद्धार।।6।।


मैंने किया मुगल–बलिदान¸
लोहू से लोहित मैदान।
बचकर निकल गया पर मान¸
पूरा हो न सका अरमान।।7।।


कैसे बचे देश–सम्मान
कैसे बचा रहे अभिमान!
कैसे हो भू का उत्थान¸
मेरे एकलिंग भगवान।।8।।


स्वतन्त्रता का झगड़ा तान¸
कब गरजेगा राजस्थान!
उधर उड़ रहा था वह वाजि¸
स्वामी–रक्षा का कर ध्यान।।9।।


उसको नद–नाले–चट्टान¸
सकते रोक न वन–वीरान।
राणा को लेकर अविराम¸
उसको बढ़ने का था ध्यान।।10।।


पड़ी अचानक नदी अपार¸
घोड़ा कैसे उतरे पार।
राणा ने सोचा इस पार¸
तब तक चेतक था उस पार।।11।।


शक्तसिंह भी ले तलवार
करने आया था संहार।
पर उमड़ा राणा को देख
भाई–भाई का मधु प्यार।।12।।


चेतक के पीछे दो काल¸
पड़े हुए थे ले असि ढाल।
उसने पथ में उनको मार¸
की अपनी पावन करवाल।।13।।


आगे बढ़कर भुजा पसार¸
बोला आंखों से जल ढार।
रूक जा¸ रूक जा¸ ऐ तलवार¸
नीला–घोड़ारा असवार।।14।।


पीछे से सुन तार पुकार¸
फिरकर देखा एक सवार।
हय से उतर पड़ा तत्काल¸
लेकर हाथों में तलवार।।15।।


राणा उसको वैरी जान¸
काल बन गया कुन्तल तान।
बोला ्"कर लें शोणित पान¸
आ¸ तुझको भी दें बलिदान्"।।16।।


पर देखा झर–झर अविकार
बहती है आंसू की धार।
गर्दन में लटकी तलवार¸
घोड़े पर है शक्त सवार।।17।।


उतर वहीं घोड़े को छोड़¸
चला शक्त कम्पित कर जोड़।
पैरों पर गिर पड़ा विनीत¸
बोला धीरज बन्धन तोड़।।18।।


्"करूणा कर तू करूणागार¸
दे मेरे अपराध बिसार।
या मेरा दे गला उतार¸
्"तेरे कर में हैं तलवार्"।।19।।


यह कह–कहकर बारंबार¸
सिसकी भरने लगा अपार।
राणा भी भूला संसार¸
उमड़ा उर में बन्धु दुलार।।20।।


उसे उठाकर लेकर गोद¸
गले लगाया सजल–समोद।
मिलता था जो रज में प्रेम¸
किया उसे सुरभित–सामोद।।21।।


लेकर वन्य–कुसुम की धूल¸
बही हवा मन्थर अनुकूल।
दोनों के सिर पर अविराम¸
पेड़ों ने बरसाये फूल।।22।।


कल–कल छल–छल भर स्वर–तान¸
कहकर कुल–गौरव–अभिमान।
नाले ने गाया स–तरंग¸
उनके निर्मल यश का गाना।।23।।


तब तक चेतक कर चीत्कार¸
गिरा धर पर देह बिसार।
लगा लोटने बारम्बार¸
बहने लगी रक्त की धार।।24।।


बरछे–असि–भाले गम्भीर¸
तन में लगे हुए थे तीर।
जर्जर उसका सकल शरीर¸
चेतक था व्रण–व्यथित अधीर।।25।।


करता धावों पर दृग–कोर¸
कभी मचाता दुख से शोर।
कभी देख राणा की ओर¸
रो देता¸ हो प्रेम–विभोर।।26।।


लोट–लोट सह व्यथा महान््¸
यश का फहरा अमर–निशान।
राणा–गोदी में रख शीश
चेतक ने कर दिया पयान।।27।।


घहरी दुख की घटा नवीन¸
राणा बना विकल बल–हीन।
लगा तलफने बारंबार
जैसे जल–वियोग से मीन।।28।।


्"हां! चेतक¸ तू पलकें खोल¸
कुछ तो उठकर मुझसे बोल।
मुझको तू न बना असहाय
मत बन मुझसे निठुर अबोल।।29।।


मिला बन्धु जो खोकर काल
तो तेरा चेतक¸ यह हाल!
हा चेतक¸ हा चेतक¸ हाय्"¸
कहकर चिपक गया तत्काल।।30।।


्"अभी न तू तुझसे मुख मोड़¸
न तू इस तरह नाता तोड़।
इस भव–सागर–बीच अपार
दुख सहने के लिए न छोड़।।31।।


बैरी को देना परिताप¸
गज–मस्तक पर तेरी टाप।
फिर यह तेरी निद्रा देख
विष–सा चढ़ता है संताप।।32।।


हाय¸ पतन में तेरा पात¸
क्षत पर कठिन लवण–आघात।
हा¸ उठ जा¸ तू मेरे बन्धु¸
पल–पल बढ़ती आती रात।।33।।


चला गया गज रामप्रसाद¸
तू भी चला बना आजाद।
हा¸ मेरा अब राजस्थान
दिन पर दिन होगा बरबाद।।34।।


किस पर देश करे अभिमान¸
किस पर छाती हो उत्तान।
भाला मौन¸ मौन असि म्यान¸
इस पर कुछ तो कर तू ध्यान।।35।।


लेकर क्या होगा अब राज¸
क्या मेरे जीवन का काज?्"
पाठक¸ तू भी रो दे आज
रोता है भारत–सिरताज।।36।।


तड़प–तड़प अपने नभ–गेह
आंसू बहा रहा था मेह।
देख महाराणा का हाल
बिजली व्याकुल¸ कम्पित देह।।37।।


घुल–घुल¸ पिघल–पिघलकर प्राण¸
आंसू बन–बनकर पाषाण।
निझर्र–मिस बहता था हाय
हा¸ पर्वत भी था मि`यमाण।।38।।


क्षण भर ही तक था अज्ञान¸
चमक उठा फिर उर में ज्ञान।
दिया शक्त ने अपना वाजि¸
चढ़कर आगे बढ़ा महान््।।39।।


जहां गड़ा चेतक–कंकाल¸
हुई जहां की भूमि निहाल।
बहीं देव–मन्दिर के पास¸
चबूतरा बन गया विशाल।।40।।


होता धन–यौवन का हास¸
पर है यश का अमर–विहास।
राणा रहा न¸ वाजि–विलास¸
पर उनसे उज्ज्वल इतिहास।।41।।


बनकर राणा सदृश महान
सीखें हम होना कुबार्न।
चेतक सम लें वाजि खरीद¸
जननी–पद पर हों बलिदान।।42।।


आओ खोज निकाले यन्त्र
जिससे रहें न हम परतन्त्र।
फूंके कान–कान में मन्त्र¸
बन जायें स्वाधीन–स्वतन्त्र।।43।।


हल्दीघाटी–अवनी पर
सड़ती थीं बिखरी लाशें।
होती थी घृणा घृणा को¸
बदबू करती थीं लाशें।।44।। 

हिंदी साहित्य में वीर महाराणा प्रताप


प्रातः स्‍मरणीय महाराणा प्रताप के विषय में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, बहुत कुछ लिखा जा रहा है।
हिंदी साहित्य के मूर्धन्‍य साहित्‍यकारों ने, राजनेताओं ने तथा अनेकों विशिष्ट व्यक्तियों ने वीर महाराणा प्रताप के लिये शाब्दिक श्रद्धा सुमन चुने हैं।प्रख्यात गांधीवादी कवि श्री सोहनलाल द्विवेदी ने निम्न शब्दों में महाराणा प्रताप का ‘आह्वान’ किया है–
माणिक, मणिमय, सिंहासन को,
कंकड़ पत्थर के कोनों पर।
सोने चांदी के पात्रों को पत्तों के पीले
दोनों पर।
वैभव से विहल महलों को कांटों की कटु
झौंपड़ियों पर।
मधु से मतवाली बेलाएं, भूखी बिलखती
घड़ियों पर।
‘रानी’, ‘कुमार’सी निधियों को, मां
के आंसू की लड़ियों पर।
तुमने अपने को लुटा दिया, आजादी की
फुलझड़ियों पर।
लोचन प्रसाद पाण्डेय ने अपनी लेखनी को यह लिखकर अमर दिया-
स्‍वातन्‍त्रय के प्रिय उपासक कर्म वीर।
हिन्दुत्व गौरव प्रभाकर धर्मवीर।
देशाभिमान परिपूरित धैर्य धाम।
राणा प्रताप, तद श्रीपद में प्रणाम।
वीरत्‍व देख मन में,रिपु भी लजाते।
हे हर्ष युक्त जिनके गुण गान गाते।
है युद्ध नीति जिनकी छल छिद्रहीन।
वह श्री प्रताप हमको बल दे नवीन।
श्री श्याम नारायण पाण्डेय ने अपने काव्‍य हल्‍दीघाटी में इस वीर शिरोमणि का वर्णन निम्न ढंग से किया–
चढ़ चेतक पर तलवार उठा
रखता था भूतल पानी को
राणा प्रताप सिर काट काट
करता था सफल जवानी को॥
श्री राधा कृष्णदास ने प्रताप के शौर्य का निम्न शब्दों में वर्णन किया है–
ठाई महल खंडहर किये सुख समान विहाय,
छानि बनन की धूरि को गिरि गिरि में टकराय।
बाबू जयशंकर प्रसाद ने अपने ऐतिहासिक काव्‍य ‘महाराणा का महत्व ‘ में खानखाना के मुंह से कहलवाया–
सचमुच शहनशाह एक ही शत्रु वह
मिला आपको है कुछ ऊँचे भाग्य से
पर्वत की कन्दरा महल है, बाग है-
जंगल ही, अहार घास फल फूल है।
हरिकृष्ण प्रेमी ने अपनी श्रद्धा के सुमन निम्न शब्दों में अर्पित किये-
सारा भारत मौन हुआ जब
सोता था सुख से नादान।
तब बंधन के विकट जाल से।
लड़ा रहे थे तुम ही जान।
श्री सुरेश जोशी ने मानवता व प्रताप का वर्णन निम्न शब्दों में किया है।
राज तिलक सूं महाराणा पद पायो,
पण मिनखपणां रो तिलक कियो खुद हाथा,
तूं राणा सूं छिन में बणग्‍यो बेरागी
तूं अल्‍ख जगाई, जाग्‍यो अगणित राता।
कन्‍हैयालाल सैठिया की प्रसिद्ध कविता पातल और पीथल में अपना संकल्‍प दोहराते हुए प्रताप कहते हैं-
‘हूं भूखमरूं, हूं प्‍यास मरूं,
मेवाड़ धरा आजाद रहे।
हूं घोर उजाड़ा में भटकूं,
पण मन में मॉ री याद रखे॥
प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्री केसर सिंह बारहठ ने महाराणा श्री फतहसिंह को 1903 में एक पत्र लिखा, इस पत्र में उन्‍होंने महाराणा प्रताप के शौर्य, आनबान का वर्णन करते हुए महाराणा फतहसिंह को दिल्‍ली दरबार में जाने से मना किया था उसी पत्र की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं।
‘पग पग भाग्‍या पहाड़, धरा छौड़ राख्‍यों धरम।
‘ईसू’ महाराणा रे मेवाड़, हिरदे, बसिया हिकरे।’
डिंगल भाषा में पृथ्‍वीराज ने लिखा है–
‘जासी हाट बाट रहसी जक,
अकबर ठगणासी एकार,
रह राखियो खत्री धम राणे
सारा ले बरता संसार।
आधुनिक खड़ी बोली में कई कवियों ने प्रताप को विषय बनाकर बहुत कुछ लिखा है। इन में प्रसाद, निराला, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी, मैथिलीशरण गुप्‍त, दिनकर, नवीन, रामावतार, राकेश, श्‍याम नारायण पाण्‍डेय, रामनरेश त्रिपाठी,हरिकृष्ण प्रेमी आदि मुख्य हैं।
हरिकृष्ण प्रेमी की ये पंक्‍तियां–
‘भारत के सारे बल को जब ,कसा बेड़ियों ने अनजान।
तब केवल तुम ही फिरते थे, वन वन पागल सिंह समान।
प्रताप के त्‍याग, बलिदान, स्वातंत्र्य भावना की कामना कवियों ने की है।
रामनरेश त्रिपाठी ने प्रताप के वंशजों से कहा है–
‘हे क्षत्रिय! है एक बूंद भी
रक्त तुम्हारे तन में जब तक
पराधीन बनकर तुम कैसे
अवनत कर लेते हो मस्तक।’
महाराणा प्रताप के विषय में सैकड़ों कविताएं, सोरठे हिंदी , ब्रज भाषा, डिंगल, पिंगल आदि में उनके समय से ही मिलती है, यह बात उनकी लोकप्रियता, वीरोचित भावना तथा त्याग व बलिदान की ओर इशारा करती है। प्रख्यात कवि पृथ्‍वीराज राठोड़ ने ठीक ही कहा-
माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राणा प्रताप।
अकबर सूंतो ओजके जाण सिराणे सांप।
रचनाकार: यशवन्त कोठारी का आलेख : आधुनिक हिंदी साहित्य में महाराणा प्रताप