Friday, June 29, 2012

अष्टांग योग

किसी ने उत्साह से सूचना दी कि अब तो आधुनिक भौतिक वैज्ञानिकों ने भी खोज लिया है कि सृष्टि के आरम्भ में जो प्रचण्ड ध्वनि (Big Bang) हुई थी वह थी ॐ । हमारा प्रणव मन्त्र। सहसा बीकानेर के स्वामी संवित् सोमगिरिजी महाराज का स्मरण हुआ। स्वामीजी कहा करते थे ‘यदि आधुनिक विज्ञान हमारे प्राचीन मत के अनुसार खोज करता है तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अब भौतिकशास्त्र सही दिशा में चल रहा है। हमारे शास्त्र तो सदा ही सत्य है।’

प्राचीन भारतीय ऋषियों ने जीवन के सभी क्षेत्रों में पूर्ण अनुसंधान कर वैज्ञानिक जीवनचर्या का अविष्कार किया था। उन्होंने जीवन के सुक्ष्मतम अंगों को समग्रता से आत्मसात कर जीने की परिपूर्ण कला का विकास किया। इसे ही योग अथवा धर्म कहा गया। सुक्ष्म का स्थूल पर नियन्त्रण होता है। सृष्टि के इस सत्य को जान लेने के कारण स्थूल भौतिक विज्ञान के स्थान पर योगविद्या ने सुक्ष्म अंतःकरण के मनोविज्ञान पर अधिक कार्य किया।

आज से लगभग पांच हजार से भी अधिक वर्ष पूर्व महर्षि पंतजली ने योग को सुसंपादित कर एक दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने योग के अष्टांग (8अंग) का वर्णन पातंजल योग सुत्रों में किया। यम, निमय, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि ये योग के आठ अंग हैं। प्रथम अंग के अन्तर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये पांच यम जीवन के सत्य स्वरूप से साक्षात्कार करने वाले महाव्रत है। संकल्पपूर्वक, दीर्घकाल, निरन्तरता से इनका अभ्यास करने से व्यक्तिगत एवं समाज जीवन में धर्म प्रतिष्ठित होता है। इस साक्षात्कारी धर्म को जीवन-व्यवहार में उतारने हेतु पांच नियम है। ये आदर्श समाज रचना की कुंजी हैं शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर-प्रणिधान। इन्हीं दशगुणों को एकाध भेद के साथ मनु महाराज ने धर्म के दशलक्षण बताया है।

योग का तीसरा अंग है आसन। शरीर को स्थिर, संतुलित कर मन को सजग करने की विधि। मन द्वारा शरीर के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंगों का नियमन। इसके अभ्यास से द्वंद्वो पर स्वामित्व प्राप्त होता है| फिर सुख-दुःख, शीत-उष्ण, मान-अपमान जैसे द्वंद्व मानव को प्रताड़ित नहीं करते और संतुलित जीवन जीने का आनंद मिलाता है|  शरीर से सूक्ष्म है प्राण-जीवनी शक्ति। सूर्य से अन्न के माध्यम से श्वसन क्रिया द्वारा प्राप्त सूक्ष्म ऊर्जा प्राण ही है। श्वसन के द्वारा सजगता को सूक्ष्मता की ओर ले जाते हुए प्राण को शांत, संतुलित एवं सजग करते हुए उसका नियमन करना अर्थात् प्राणायाम। बहिर्मुख इन्द्रियों को अंतर्मुख कर उनके आहार को नियन्त्रित करना पांचवा अंग है प्रत्याहार।

अंतिम तीन अंग मन द्वारा मन के स्तर पर किए जाते है। महर्षि पतंजलि ने योग को ‘चित्त की वृतियों के निरोध’ के रूप में परिभाषित किया। यही योग का लक्ष्य है। चंचल मन में अनेक पर अनेक विचार अनेक दिशाओं में प्रचण्ड गति से कार्य करते है। जब हम एकाग्रता के साथ किसी विषय का अध्ययन करते है तब एक ही विषय पर एक दिशा में अनेक विचार कार्य करते है। सामान्यतः हमारा मन इन दो स्थितियों में कार्य करने का अभ्यस्त हो जाता है। धारणा इसके आगे का अभ्यास है। वह मन को योग्यता प्रदान करता है। योग्यता ध्यान में प्रवेश करने की। धारणा में हम एक विषय की दिशा में एक विचार को केन्द्रीकृत कर देते है अर्थात् मन में एक विचार की धारणा करते है। धारणा के अभ्यास में जब प्रयत्नभाव छूट जाता है तब ध्यान लग जाता है। ‘मैं धारणा कर रहा हूं।’ यह कर्तृत्व बोध जब विसर्जित होता है तब उस स्थिति को ध्यान कहते है। धारणा में तीन घटक है। धारणा का विषय, धारणा करने वाला विषयी और धारणा की प्रक्रिया। उदाहरण के लिए जब हम जप के द्वारा धारणा करते है तब जिस नाम का जप कर रहे है वह विषय। जप करने वाला साधक विषयी तथा जप करना यह प्रक्रिया। तीनों घटक क्रिया करते है तब वह धारणा है। अभ्यास करते करते जप की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। अब जप स्वतः होने लगता है। इसे अजप जप कहते है। अब केवल विषय और विषयी बचे। दोनों के संबंध का बोध कराती प्रक्रिया समाप्त हो गयी इस स्थिति को ध्यान कहते है। जब विषय-विषयी एक हो जाते है द्वैत समाप्त होता है तब अंतिम योग अंग उपलब्ध होता है-समाधि।

Wednesday, June 27, 2012

क्या नेताजी ने ‘भगवान जी’ उर्फ ‘गुमनामी बाबा’ का रूप धारण किया था?



"नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की विमान दुर्घटना में मृत्यु नहीं हुई थी। वे उसके बाद भी जीवित थे। इसके अनेक प्रमाण हैं। परंतु पंडित नेहरू ने प्रयत्नपूर्वक इस तथ्य को सामने नहीं आने दिया। ऐसा भी वातावरण तैयार किया कि नेताजी कभी जनता के बीच न आएं और अपनी उपस्थिति न प्रकट करें। पंडित नेहरू ऐसा इसलिए चाहते थे क्योंकि उन्हें यह डर था कि नेताजी के सामने आते ही देशवासी उनके पीछे चले जाएंगे और नेहरू प्रधानमंत्री नहीं रह पाएंगे।" राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री कुप्.सी.सुदर्शन ने एक बार फिर यह बात बहुत स्पष्ट रूप से कही है। नई दिल्ली में गत 5 दिसम्बर को "भगवन् जी से नेता जी तक" पुस्तक के लोकार्पण समारोह को सम्बोधित करते हुए श्री सुदर्शन ने कहा, "जनमानस की शंका का समाधान होना ही चाहिए। इस संदर्भ में पूर्ववर्ती राजग सरकार के समय कुछ गंभीर प्रयत्न हुए थे उसके समय में बनाई गई मुखर्जी कमेटी इस बात की जांच कर रही थी कि अयोध्या में गुमनामी बाबा के नाम से विख्यात व्यक्तित्व कहीं नेताजी तो नहीं थे। गुमनामी बाबा और नेताजी के व्यक्तित्व की समानता को देखते हुए मेरा भी यह विश्वास है कि वे ही नेताजी थे।"

नेताजी की मृत्यु के संदर्भों की चर्चा करते हुए श्री सुदर्शन ने कहा कि ताईवान की सरकार ने भी उस तिथि पर अपने यहां किसी भी प्रकार की विमान दुर्घटना की बात को सिरे से खारिज किया है। श्री सुदर्शन ने कहा कि मेरी भी यह मान्यता है कि 1945 में नेताजी ताईवान से रूस चले गए थे। पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद रूस की मित्र राष्ट्रों से हुई संधि के कारण परिस्थितियां बदल गई थीं इसलिए अंग्रेजों के इशारे पर उन्हें वहीं बंदी बना लिया गया और यहां यह खबर उड़ाने में नेहरू जी ने मदद की कि नेताजी की मृत्यु हो गई। रूस से स्वतंत्र होने के बाद संभवत: पंडित नेहरू द्वारा लादी गई कुछ शर्तों को मानकर वे भारत आए। पर यहां की परिस्थितियां ऐसी बना दी गई थीं कि वे सामने न आ सकें। श्री सुदर्शन ने कहा कि नेताजी की मृत्यु का रहस्य हो अथवा कश्मीर या तिब्बत की समस्या, ये सब पंडित नेहरू की ही देन है।

अयोध्या के गुमनामी बाबा की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि उनकी हस्तरेखा का मेल नेताजी से होता था। गुमनामी बाबा की मृत्यु के बाद उनका शव दो दिन तक रखा रहा ताकि कोलकाता से कुछ लोग वहां आ सकें। उसके बाद भी उनकी शव यात्रा को प्रशासन ने दबाव देकर छावनी के बीच से होते हुए एक सुनसान स्थान पर अंतिम संस्कार संपन्न कराया जिसमें मात्र 5-7 लोग ही उपस्थित थे जबकि उनका अंतिम संस्कार सरयू तट पर होना निश्चित था। इस सबको देखकर गुमनामी बाबा की सेवा में लम्बे समय तक रहने वाली सरस्वती देवी रोते हुए बुदबुदायीं कि जिसकी शव यात्रा में लाखों लोग होने चाहिए थे उसकी ऐसी गुमनाम शव यात्रा निकली। उनकी मृत्यु के पश्चात् जब गुमनामी बाबा के नेताजी होने की बात कही जाने लगी तब उनके सामान की जांच पड़ताल की गई और उससे भी इस बात को बल मिलता है कि वे ही नेताजी थे।

लोकार्पण समारोह की अध्यक्षता करते हुए पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री डा.मुरली मनोहर जोशी ने भी अनेक तथ्यों, प्रमाणों एवं संदर्भों का हवाला देते हुए इस बात को सिद्ध किया कि विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु नहीं हुई थी। उन्होंने कहा कि 1978 में माउंटबेटन ने भी यह कहा था कि नेताजी की मृत्यु के संबंध में वे आधिकारिक रूप से कुछ नहीं कह सकते। स्वतंत्रता के बाद नेताजी की कथित मृत्यु के रहस्य पर से पर्दा हटाने के लिए शाहनवाज कमेटी, खोसला कमेटी और मुखर्जी आयोग का गठन हुआ। पर किसी भी समिति ने यह नहीं कहा कि उस विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु हुई थी। डा.जोशी ने कहा कि नेताजी के संबंध में किसी भी जांच और शोध में कांग्रेस की सरकारें सहयोग नहीं करती थीं। डा.जोशी ने कहा कि मैं देशवासियों से यह आधिकारिक रूप से एवं दावे के साथ कह सकता हूं कि 1945 में ताईवान में हुई कथित विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु नहीं हुई थी।

क्या नेताजी ने ‘भगवान जी’ उर्फ ‘गुमनामी बाबा’ का रूप धारण किया था?
रचलित कहानी के अनुसार, 1950 के दशक में ‘दशनामी’ सम्प्रदाय के एक सन्यासी नेपाल के रास्ते भारत में प्रवेश करते हैं। नीमशहर और बस्ती में वे अपना एकाकी जीवन बिताते हैं। उन्हें ‘भगवानजी’ के नाम से जाना जाता है।
बताया जाता है कि नेताजी को पहले से जानने वाले कुछ लोग- जैसे उनके कुछ रिश्तेदार, कुछ शुभचिन्तक, कुछ स्वतंत्रता सेनानी, कुछ आजाद हिन्द फौज के अधिकारी उनसे गुप-चुप रूप से मिलते रहते थे। खासकर, 23 जनवरी और दुर्गापूजा के दिन मिलने-जुलने वालों की तादाद बढ़ जाती थी। पहचान खुलने के भय से और कुछ अर्थाभाव के कारण 1983 में, 86 वर्ष की अवस्था में वे पुरानी जगह बदल देते हैं और फैजाबाद (अयोध्या) आ जाते हैं। (ध्यान रहे, नेताजी का जन्म 23 जनवरी 1897 को हुआ था।)
1975 से ही उनके भक्त बने डॉ. आर.पी. मिश्रा ‘रामभवन’ में उनके लिए दो कमरे किराये पर लेते हैं। यहाँ भगवानजी एकान्त में रहते हैं, पर्दे के पीछे से ही लोगों से बातचीत करते हैं और रात के अन्धेरे में ही उन्हें जानने वाले उनसे मिलने आते हैं। यहाँ तक कि उनके मकान-मालिक गुरुबसन्त सिंह भी दो वर्षों में सामने से उनका चेहरा नहीं देख पाते हैं। उनकी देखभाल के लिए सरस्वती देवी अपने बेटे राजकुमार मिश्रा के साथ रहती हैं। भगवानजी इतने गोपनीय ढंग से रहते हैं कि उन्हें ‘गुमनामी बाबा’ का नाम मिल जाता है, जो गुमनाम ही रहना चाहता हो।
16 सितम्बर 1985 को गुमनामी बाबा का देहान्त होता है। 18 सितम्बर को उनके भक्तजन बाकायदे तिरंगे में लपेटकर उनका पार्थिव शरीर सरयू तट के गुप्तार घाट पर ले जाते हैं और तेरह लोगों की उपस्थिति में उनका अन्तिम संस्कार कर दिया जाता है। इसके बाद खबर जोर पकड़ती है कि है कि गुमनामी बाबा नेताजी थे।
गुमनामी बाबा के सामान को प्रशासन नीलाम करने जा रहा था। लालिता बोस, एम.ए. हलीम और विश्वबन्धु तिवारी कोर्ट गये, तब जाकर अदालत के आदेश पर मार्च’ 86 से सितम्बर’ 87 के बीच उनके सामान को 24 ट्रंकों में सील किया गया। 26 नवम्बर 2001 को इन ट्रंकों के सील मुखर्जी आयोग के सामने खोले जाते हैं और इनमें बन्द 2,600 से भी अधिक चीजों की जाँच की जाती है। पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं के अलावे इन चीजों में नामी-गिरामी लोगों- जैसे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के “गुरूजी”, पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री तथा राज्यपाल के पत्र, नेताजी से जुड़े समाचारों-लेखों के कतरन, रोलेक्स और ओमेगा की दो कलाई-घड़ियाँ (कहते हैं कि ऐसी ही घड़ियाँ वे पहनते थे), जर्मन दूरबीन, इंगलिश टाईपराइटर, पारिवारिक छायाचित्र, हाथी दाँत का स्मोकिंग पाईप (टूटा हुआ) इत्यादी हैं। यहाँ तक कि नेताजी के बड़े भाई सुरेश बोस को खोसला आयोग द्वारा भेजे गये सम्मन की मूल प्रति भी है।
श्री मनोज कुमार मुखर्जी चूँकि ‘न्यायाधीश’ (अवकाशप्राप्त) हैं, अतः ‘बिना पक्के सबूतों और गवाहों’ के वे अन्तिम निर्णय लेने में असमर्थ हैं। तीन कारणों से वे ‘गुमनामी बाबा’ को ‘नेताजी’ घोषित नहीं करते:
1. बाबा को करीब से जानने वाले लोग स्वर्गवासी हो चुके हैं, अतः वे गवाही के लिए उपलब्ध नहीं हो सकते;
2. बाबा का कोई छायाचित्र उपलब्ध नहीं है, और
3. सरकारी फोरेंसिक लैब ने उनके ‘हस्तलेख’ और ‘दाँतों’ की डी.एन.ए. जाँच का रिपोर्ट ऋणात्मक दिया है।
(ये दाँत एक माचिस की डिबिया में रखे पाये गये थे। अच्छा होता, अगर जस्टिस मुखर्जी ने ये जाँच भारत के बाहर के फोरेंसिक लैबों में भी करवाये होते। भारतीय ‘सरकारी’ लैबों की रिपोर्टों को विश्वसनीय मानना जरा मुश्किल है |)
खैर, नेताजी के ज्यादातर भक्त आज ‘दशनामी सन्यासी’ उर्फ ‘भगवान जी’ उर्फ ‘गुमनामी बाबा’ को ही नेताजी मानते हैं। (अनुज धर के ‘मिशन नेताजी’ ने इसके लिए बाकायदे अभियान चला रखा है।) कारण हैं: उनकी कद-काठी, बोल-चाल इत्यादि नेताजी जैसा होना; कम-से-कम चार मौकों पर उनका यह स्वीकारना कि वे नेताजी हैं; उनके सामान में नेताजी के पारिवारिक तस्वीरों का पाया जाना; नेताजी के करीबी रहे लोगों से उनकी घनिष्ठता और पत्र-व्यवहार; बात-चीत में उनका जर्मनी आदि देशों का जिक्र करना; इत्यादि।
जो बातें गुमनामी बाबा के नेताजी होने के समर्थन में जाती हैं, उन्हीं में से कुछ बातें उनके विरुद्ध भी जाती है, मिसाल के तौर पर: सन्यास लेकर जब नेताजी ने पिछले जीवन से नाता तोड़ लिया, तो फिर पुराने पारिवारिक छायाचित्रों के मोह से वे क्यों बँधे रहे? क्या सिंगापुर छोड़ने के समय से ही वे इन छायाचित्रों को साथ लिये घूम रहे थे?
अगर उनके सामान में उनके ही टाईपराईटर और बायनोकूलर पाये जाते हैं, तो यह ‘दाल में काला’- जैसा मामला है। सिंगापुर छोड़ते समय निस्सन्देह वे अपना टाईपराइटर और बायनोकूलर साथ नहीं ले गये होंगे, न ही (सन्यास धारण करने के बाद) सोवियत संघ से भारत आते समय इन्हें लेकर आये होंगे, फिर ये उनतक कैसे पहुँचे? सिंगापुर में उनके सामान को तो माउण्टबेटन की सेना ने जब्त कर सरकारी खजाने में पहुँचा दिया होगा। (एक कुर्सी शायद लालकिले में है।)

माना कि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नेताजी पर छपने वाली खबरों की कतरनों को उनके भक्तजनों ने उनतक पहुँचाया होगा, मगर सरकारी खजाने से निकालकर मेड इन इंग्लैण्ड एम्पायर कोरोना टाईपराइटर और मेड इन जर्मनी 16 गुना 56 दूरबीन उनतक पहुँचाना उनके भक्तजनों के बस की बात नहीं है। तो फिर? क्या गुप्तचर विभाग के अधिकारियों ने उनके पास ये सामान पहुँचाये? तो क्या ‘गुमनामी बाबा’ को भारत सरकार के गुप्तचर विभाग ने खड़ा किया था? ताकि वास्तविक नेताजी की ओर लोगों का ध्यान न जाये? या फिर, जनता ‘ये असली हैं’ और ‘वे असली हैं’ को लेकर लड़ती रहे और सरकार चैन की साँस लेती रहे?


Monday, June 18, 2012

सरफ़रोशी की तमन्ना



सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आस्माँ!हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है?

एक से करता नहीं क्यों दूसरा कुछ बातचीत,देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है।
रहबरे-राहे-मुहब्बत! रह न जाना राह में, लज्जते-सेहरा-नवर्दी दूरि-ए-मंजिल में है।

अब न अगले वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,एक मिट जाने की हसरत अब दिले-'बिस्मिल' में है ।
ए शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार, अब तेरी हिम्मत का चर्चा गैर की महफ़िल में है।

खींच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद, आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है।
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?

है लिये हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधर, और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर।
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है, सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

हाथ जिनमें हो जुनूँ , कटते नही तलवार से, सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से,
और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है , सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

हम तो निकले ही थे घर से बाँधकर सर पे कफ़न,जाँ हथेली पर लिये लो बढ चले हैं ये कदम।
जिन्दगी तो अपनी महमाँ मौत की महफ़िल में है, सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

यूँ खड़ा मकतल में कातिल कह रहा है बार-बार, "क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है?"
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?

दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब, होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज।
दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है ! सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है ।

जिस्म वो क्या जिस्म है जिसमें न हो खूने-जुनूँ, क्या वो तूफाँ से लड़े जो कश्ती-ए-साहिल में है।
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है । देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है ??

-पं० राम प्रसाद 'बिस्मिल'


‎-----शेयर करे मित्रो ताकि हर हिन्दुस्तानी जान सके-----
=============================
क्रिकेट टीम की जीत पर उत्साहित होना,
विरोधी पक्ष को जीतते देख धीरज खोना,
... ये भी देशप्रेम हो सकता है, लेकिन

देशप्रेम का मूल्य प्राण है, देखें कौन चुकाता है !
देखें कौन सुमन शैय्या तज, कंटक पथ अपनाता है !!

गांधी-नेहरु के गुण गाना, बोस-सावरकर को भूल जाना,
युगों युगों पुराने भारत को सन संतालिस में "खोजा" जाना,
ये भी इतिहास हो सकता है, लेकिन

विदेशी चश्मे से लिखे इतिहास को, देखें कौन जलाता है !
देखें कौन दबी हुई सच्चाई को, फिर से सतह पर लाता है !!

घर में बीवी बच्चों की अभिलाषाएं पूरी करना,
बाहर हो रहे अन्याय का प्रतिकार करने से डरना,
ये भी प्रेम स्वरूप हो सकता है, लेकिन

मातृभूमि की ममता के ऋण को देखें कौन चुकता है !
देखें कौन प्रेयसी का पल्लू तज, माँ का आँचल अपनाता है !!

तुम चले गए तो क्या, सौ राजीव यहाँ जगा गए,
देशभक्ति क्या होती है, तुम हमको सिखा गए,
प्रेरित हो तुमसे, ये लिखता हूँ,

भा रत हो कर घोर तिमित को, देखें कौन हराता है !
देखें कौन विश्व पटल पर भारत का परचम लहराता है !!

मुर्दों को प्रेरित करने को उपन्यास भी कम है,
जो जीवित हैं उनके लिए दो शब्द ही काफी हैं,
~~~जय माँ भारती~~~

इसीलिए मैं कविता को हथियार बना कर गाता हूँ


रोंटे खडे कर देने वाली ये कवीता है..... मेरे देश के सैनिकों को समर्पित
सभी देश-प्रेमी लोगों से निवेदन है कि इस कविता को ज़रूर पढ़ें.....और अपनी प्रतिक्रिया दें ...
सैनिकों को समर्पित एक आरती....)-----


मैं दिनकर का पाँचजन्य हूँ , गहन मौन में खोया हूँ.....
उन बेटों के याद कथानक लिखते-लिखते रोया हूँ.........
जिस माथे की कुमकुम-बिंदी वापस लौट नहीं पाई.....
झुमके,चुटकी,पायल ले गई, क़ुरबानी की अमराई........
कुछ बहनों की राखी जल गई है,बर्फीली घाटी में......
वेदी के गठबंधन मिल गए हैं, बर्फीली माटी में........
टूटी चूड़ी, धुला माहवार, रूठा कंगन हाथों का........
कोई मोल नहीं हो सकता, बासंती ज़ज्बातों का.....
जो पहले-पहले चुम्बन के बाद लाम पर चला गया....
नई दुल्हन की सेज छोड़ कर, युद्ध-काम पर चला गया....
उसको भी मीठी नींदों की करवट याद रही होगी......
खुशबू में डूबी यादों की सलवट याद रही होगी.....
वह औरत पूरी दुनिया का बोझा सर ले सकती है....
जो अपने पति की अर्थी को भी कन्धा दे सकती है.....
तब आंसू की एक बूँद से सातों सागर हारे हैं........
जब मेंहदी वाले हाथों ने मंगलसूत्र उतारे हैं........
मैं ऐसी हर देवी के चरणों में शीश झुकता हूँ.....
इसीलिए मैं कविता को हथियार बना कर गाता हूँ......
जब बेटे की अर्थी आई होगी सूने आँगन में....
शायद दूध उतर आया हो, बूढी माँ के दामन में...
सेना मर-मर कर पाती है, दिल्ली सब खो देती है.....
और शहीदों के लौहू को, स्याही से धो देती है......
मैं इस कायर राजनीति से बचपन से घबराता हूँ.....
इसीलिए मैं कविता को................................................
(अमर शहीदों और सीमा पर तैनात जवानों को मेरा शत-शत नमन....)
साभर- विपुल विद्रोही

Thursday, June 14, 2012

मूर्तिभंजक महमूद गजनी कैसे भागा था कश्मीर से


कश्मीर के इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठों पर ‘कक्रोटा वंश’ का 245 वर्ष का राज्य स्वर्णिम अक्षरों में वर्णित है। इस वंश के राजाओं ने अरब हमलावरों को अपनी तलवार की नोक पर कई वर्षों तक रोके रखा था। कक्रोटा की माताएं अपने बच्चों को रामायण और महाभारत की कथाएं सुनाकर राष्ट्रवाद की प्रचंड आग से उद्भासित करती थीं। यज्ञोपवीत धारण के साथ शस्त्र धारण के समारोह भी होते थे, जिनमें माताएं अपने पुत्रों के मस्तक पर खून का तिलक लगाकर मातृभूमि और धर्म की रक्षा की सौगंध दिलाती थीं। अपराजेय राज्य कश्मीर इसी कक्रोटा वंश में चन्द्रापीड़ नामक राजा ने सन् 711 से 719 ई.तक कश्मीर में एक आदर्श एवं शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। यह राजा इतना शक्तिशाली था कि चीन का राजा भी इसकी महत्ता को स्वीकार करता था। इससे कश्मीरियों की दिग्विजयी मनोवृत्ति का परिचय मिलता है। अरब देशों तक जाकर अपनी तलवार के जौहर दिखाने की दृढ़ इच्छा और चीन जैसे देशों के साथ सैन्य संधि जैसी कूटनीतिज्ञता का आभास भी दृष्टिगोचर होता है। अरबों के आक्रमणों को रोकने के लिए चीन के सम्राट के साथ सैनिक संधि के परिणामस्वरूप, चीन से सैनिक टुकड़ियां कश्मीर के राजा चन्द्रापीड़ की सहायतार्थ पहुंची थीं। इसका प्रमाण चीन के एक राज्य वंश ‘ता-आंग’ के सरकारी उल्लेखों में मिलता है। साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीढ़ का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है। उसका सैंतीस वर्ष का राज्य उसके सफल सैनिक अभियानों, उसकी सर्वधर्मसमभाव पर आधारित जीवन प्रणाली, उसके अद्भुत कला कौशल और विश्व विजेता बनने की उसकी चाह से पहचाना जाता है। लगातार बिना थके युद्धों में व्यस्त रहना और रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त करना उसके स्वभाव का साक्षात्कार है। ललितादित्य ने पीकिंग को भी जीता और 12 वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा। कश्मीर उस समय सबसे शक्तिशाली राज्य था। इसी प्रकार उत्तर में तिब्बत से लेकर द्वारिका और उड़ीसा के सागर तट और दक्षिण तक, पूर्व में बंगाल, पश्चिम में विदिशा और मध्य एशिया तक कश्मीर का राज्य फैला हुआ था जिसकी राजधानी प्रकरसेन नगर थी। ललितादित्य की सेना की पदचाप अरण्यक (ईरान) तक पहुंच गई थी। शौर्य का इतिहास ईरान, तुर्किस्तान तथा भारत के कुछ हिस्सों को अपने पांवों तले रौंदने वाला सुल्तान महमूद गजनवी भी दो बार कश्मीर की धरती से पराजित होकर लौटा था। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि कश्मीरी सैनिकों की तलवार के वार वह सह न सका और जिंदगी भर कश्मीर की वादियों को जीतने की तमन्ना पूरी न कर सका। कश्मीर के इस शौर्य को इतिहास के पन्नों पर लिखा गया महाराजा संग्रामराज के शासनकाल में। इस शूरवीर राजा ने कश्मीर प्रदेश पर 1003 ई.से लेकर 1028 ई.तक राज्य किया। महमूद गजनवी का अंतिम आक्रमण भारत पर 1030 ई. में हुआ था। संग्रामराज महमूद की आक्रमण शैली को समझता था। धोखा, फरेब, देवस्थानों को तोड़ने, बलात्कार इत्यादि महाजघन्य कुकृत्य करने वाले महमूद गजनवी के आक्रमण की गंभीरता को समझते हुए उसने पूरे कश्मीर की सीमाओं पर पूरी चौकसी रखने के आदेश दिए। सीमावर्ती क्षेत्रों के लोगों को विशेष रूप से प्रशिक्षित किया गया ताकि पूरी सतर्कता से प्रत्येक परिस्थिति का सामना कर सकें। प्रसिद्ध इतिहासकार अल्बरूनी ने कश्मीर की सीमाओं की सुरक्षा व्यवस्था में लोगों के योगदान की चर्चा की है, ‘कश्मीर के लोग अपने राज्य की वास्तविक शक्ति के विषय में विशेष रूप से उत्कंठित रहते हैं। इसलिए वे कश्मीर में प्रवेश द्वार और इसकी ओर खुलने वाली सड़कों की ओर सदा मजबूत निगाह रखते हैं। फलस्वरूप, उनके साथ कोई वाणिज्य व्यापार कर पाना, बहुत कठिन है।…इस समय तो वे किसी अनजाने हिन्दू को भी प्रवेश नहीं करने देते, दूसरे लोगों की तो बात ही छोड़िए।’ भाग खड़ा हुआ महमूद भारत की सीमाओं पर महमूद गजनवी ने कई आक्रमण किए उसने भारत के अनेक नगर रौंदे। कांगड़ा के नगरकोट किले को फतह करने के बाद उसकी गिद्ध दृष्टि पास लगते स्वतंत्र कश्मीर राज्य पर पड़ी। उसने इस राज्य को भी फतह करने के इरादे से सन् 1015 ई.में कश्मीर पर आक्रमण किया। कश्मीर की सीमा पर स्थित लोहकोट नामक किले के पास तौसी नामक मैदान में उसने सैनिक पड़ाव डाला। तौसी छोटी नदी को कहते हैं। इस स्थान पर यह नदी झेलम नदी में मिलती है अत: इसका नाम तौसी मैदान पड़ा। महमूद के आक्रमण की सूचना सीमा क्षेत्रों पर बढ़ाई गई चौकसी और गुप्तचरों की सक्रियता के कारण तुरंत राजा तक पहुंची। कश्मीर की सेना ने एक दक्ष सेनापति तुंग के नेतृत्व में कूच कर दिया। कश्मीर प्रदेश के साथ लगे काबुल राज्य पर त्रिलोचनपाल का राज्य था। राजा त्रिलोचनपाल स्वयं भी सेना के साथ तौसी के मैदान में आ डटा। गजनवी की सेना को चारों ओर से घेर लिया गया। महमूद की सेना को मैदानी युद्धों का अभ्यास था। वह पहाड़ी रास्तों से अनभिज्ञ थी। महमूद की षड्यंत्र-युक्त युद्धशैली कश्मीरी सेना की चातुर्यपूर्ण पहाड़ी व्यूहरचना के आगे पिट गई। तौसी का युद्ध स्थल महमूद के सैनिकों के शवों से भर गया। प्रारंभिक अवस्था में लोहकोट के किले पर महमूद का कब्जा था। कश्मीर से संग्रामराज के द्वारा भेजी गई एक और सैनिक टुकड़ी, जो किले की व्यूहरचना को तोड़ने में सिद्ध हस्त थी, ने किले को घेरकर भेदकर अंदर प्रवेश किया तो महमूद, जो किले के भीतर एक सुरक्षित स्थान पर दुबका पड़ा था, अपने इने-गिने सैनिकों के साथ भागने में सफल हो गया। मिट्टी में मिला गुरूरभारत में महमूद की यह पहली बड़ी पराजय थी। उसकी सेना अपरिचित पहाड़ी मार्गों पर रास्ता भूल गई और उनका पीछे मुड़ने का मार्ग बाढ़ के पानी ने रोक लिया। अत्यधिक प्राणहानि के पश्चात् महमूद की सेना मैदानी क्षेत्रों में भागी और अस्तव्यस्त हालत में गजनवी तक पहुंच सकी। कश्मीरी सेना के हाथों इतनी मार खाने के बाद महमूद ने संग्रामराज की सैनिक क्षमता का लोहा तो माना परंतु उसके मन में कश्मीर विजय का स्वप्न पलता रहा। वह अपनी पाशविक आकांक्षा पर नियंत्रण न कर सका। अत: महमूद 1021 ई.में पुन: कश्मीर पर आक्रमण करने आ पहुंचा। इस बार भी उसने लोहकोट किले पर ही पड़ाव डाला। काबुल के हिन्दू राजा त्रिलोचनपाल ने फिर उसे खदेड़ना शुरू किया। परंतु इस बार महमूद अधिक शक्ति के साथ आक्रमण की तैयारी करके आया था। पिछले घावों का दर्द अभी बाकी था। नई मार से वह पागल जानवर की तरह हताश हो गया। त्रिलोचनपाल की सहायता के लिए कश्मीर के राजा संग्रामराज ने भी तुरंत सेना भेज दी। महमूद की सेना चारों खाने चित पिटने लगी। महमूद गजनवी की पुन: पराजय हुई और वह दूसरी बार कश्मीरियों के हाथों पिट कर गजनी भाग गया। इसके बाद उसकी मरते दम तक न केवल कश्मीर अपितु पूरे भारत की ओर देखने की हिम्मत नहीं हुई। पुनर्जीवित हो राष्ट्रनिष्ठा महमूद की इस दूसरी अपमानजनक पराजय के संबंध में एक मुस्लिम इतिहासकार मजीम के अनुसार ‘महमूद गजनवी ने अपनी पिछली पराजय का बदला लेने और अपनी इज्जत पुन: प्राप्त करने हेतु 1021 ई. में कश्मीर पर पुराने रास्ते से ही आक्रमण किया परंतु फिर लोहकोट के किले ने उसका रास्ता रोक लिया। एक मास की असफल किले बंदी के बाद, बर्बादी की संभावना से डरकर महमूद ने दुम दबाकर भाग जाने की सोची और बचे हुए चंद सैनिकों के साथ भाग गया। इस पराजय से उसे कश्मीर राज्य की अजेय शक्ति का आभास हो गया और कश्मीर को हस्तगत करने का इरादा उसने सदा सर्वदा के लिए त्याग दिया।’ उपरोक्त वर्णन के मद्देनजर वर्तमान संदर्भ में ये समझना जरूरी है कि हमलावर विदेशी लुटेरों की आक्रामक तहजीब को आधार बनाकर कश्मीर घाटी में भारत विरोधी हिंसक जिहाद का संचालन कर रहे इन्हीं कश्मीरी नेताओं के हिन्दू पूर्वजों ने अनेक शताब्दियों तक विदेशी आक्रमणकारियों को धूल चटाई है। परंतु लम्बे समय तक बलात् मतान्तरण के परिणामस्वरूप इनकी राष्ट्रनिष्ठा लुप्त हो गई। अत: इस समाप्त हो चुकी राष्ट्रनिष्ठा को पुनर्जीवित किए बिना कश्मीर की वर्तमान समस्या नहीं सुलझाई जा सकती।
साभार- साप्ताहिक पाञ्चजन्य से

मुस्लिमों का तीर्थ स्थल “काबा” एक हिन्दू मन्दिर है या था?


यह प्रश्न कई बार और कई जगहों पर पूछा गया है कि क्या मुस्लिमों का तीर्थ स्थल “काबा” एक हिन्दू मन्दिर है या था? इस बारे में काफ़ी लोगों को शक है कि आखिर काबा के बाहर चांदी की गोलाईदार फ़्रेम में जड़ा हुआ काला पत्थर क्या है? काबा में काले परदे से ढँकी हुई उस विशाल संरचना के भीतर क्या है? क्यों काबा के कुछ इलाके गैर-मुस्लिमों के लिये प्रतिबन्धित हैं? आखिर मुस्लिम काबा में परिक्रमा क्यों करते हैं? इन सवालों के जवाब में सबसे प्रामाणिक और ऐतिहासिक तथ्यों और सबूतों के साथ भारतीय इतिहासकार पीएन ओक तथा हिन्दू धर्म के प्रखर विद्वान अमेरिकी इतिहासकार स्टीफ़न नैप की साईटों पर कुछ सामग्री मिलती है।

 तुर्की के इस्ताम्बुल शहर की प्रसिद्ध लायब्रेरी मकतब-ए-सुल्तानिया में एक ऐतिहासिक ग्रन्थ है “सायर-उल-ओकुल”, उसके पेज 315 पर राजा विक्रमादित्य से सम्बन्धित एक शिलालेख का उल्लेख है,
जिसमें कहा गया है कि “…वे लोग भाग्यशाली हैं जो उस समय जन्मे और राजा विक्रम के राज्य में जीवन व्यतीत किया, वह बहुत ही दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था जो हरे व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचता था। लेकिन हम अरब लोग भगवान से बेखबर अपने कामुक और इन्द्रिय आनन्द में खोये हुए थे, बड़े पैमाने पर अत्याचार करते थे, अज्ञानता का अंधकार हमारे चारों तरफ़ छाया हुआ था। जिस तरह एक भेड़ अपने जीवन के लिये भेड़िये से संघर्ष करती है, उसी प्रकार हम अरब लोग अज्ञानता से संघर्षरत थे, चारों ओर गहन अंधकार था। लेकिन विदेशी होने के बावजूद, शिक्षा की उजाले भरी सुबह के जो दर्शन हमें राजा विक्रमादित्य ने करवाये वे क्षण अविस्मरणीय थे। उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फ़ैलाया, अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फ़ैल सके। इन विद्वानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये तमाम विद्वान, राजा विक्रमादित्य के निर्देश पर अपने धर्म की शिक्षा देने यहाँ आये…”।

यह संग्रह प्राचीन अरबी कविताओं का सबसे आधिकारिक, सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण संकलन माना जाता है। यह प्राचीन अरब जीवन के सामाजिक पहलू, प्रथाओं, परम्पराओं, तरीकों, मनोरंजन के तरीकों आदि पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। इस प्राचीन पुस्तक में प्रतिवर्ष मक्का में आयोजित होने वाले समागम जिसे “ओकाज़” के नाम से जाना जाता है, और जो कि काबा के चारों ओर आयोजित किया जाता है, के बारे में विस्तार से जानकारियाँ दी गई हैं। काबा में वार्षिक “मेले” (जिसे आज हज कहा जाता है) की प्रक्रिया इस्लामिक काल से पहले ही मौजूद थी, यह बात इस पुस्तक को सूक्ष्मता से देखने पर साफ़ पता चल जाती है।
उन दिनों काबा में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला “ओकाज़” सिर्फ़ एक मेला या आनंदोत्सव नहीं था, बल्कि यह एक मंच था जहाँ विश्व के कोने-कोने से विद्वान आकर समूचे अरब में फ़ैली वैदिक संस्कृति द्वारा उत्पन्न सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, शैक्षणिक पहलुओं पर खुली चर्चा करते थे। “सायर-उल-ओकुल” का निष्कर्ष है कि इन चर्चाओं और निर्णयों को समूचे अरब जगत में सम्मान और सहमति प्राप्त होती थी। अतः एक प्रकार से मक्का, भारत के वाराणसी की तर्ज पर विद्वानों के बीच अतिमहत्वपूर्ण बहसों के केन्द्र के रूप में उभरा, जहाँ भक्तगण एकत्रित होकर परम-आध्यात्मिक सुख और आशीर्वाद लेते थे। वाराणसी और मक्का दोनों ही जगहों पर इन चर्चाओं और आध्यात्म का केन्द्र निश्चित रूप से शिव का मन्दिर रहा होगा। यहाँ तक कि आज भी मक्का के काबा में प्राचीन शिवलिंग के चिन्ह देखे जा सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि काबा में प्रत्येक मुस्लिम जिस काले पत्थर को छूते और चूमते हैं वह शिवलिंग ही है। हालांकि अरबी परम्परा ने अब काबा के शिव मन्दिर की स्थापना के चिन्हों को मिटा दिया है, लेकिन इसकी खोज विक्रमादित्य के उन शिलालेखों से लगाई जा सकती है जिनका उल्लेख “सायर-उल-ओकुल” में है। जैसा कि सभी जानते हैं राजा विक्रमादित्य शिव के परम भक्त थे, उज्जैन एक समय विक्रमादित्य के शासनकाल में राजधानी रही, जहाँ कि सबसे बड़े शिवलिंग महाकालेश्वर विराजमान हैं। ऐसे में जब विक्रमादित्य का शासनकाल और क्षेत्र अरब देशों तक फ़ैला था, तब क्या मक्का जैसी पवित्र जगह पर उन्होंने शिव का पुरातन मन्दिर स्थापित नहीं किया होगा?

अब हम पश्चिम एशिया और काबा में भारतीय और हिन्दू संस्कारों, संस्कृति से मिलती-जुलती परम्पराओं, प्रतीकों और शैलियों को हम एक के बाद एक देखते जाते हैं, और आप खुद ही अनुमान लगाईये कि आखिर काबा में स्थापित विशाल संरचना जिसे छिपाकर रखा गया है, प्राचीन काल में वह शिव मन्दिर क्यों नहीं हो सकता।

मक्का शहर से कुछ मील दूर एक साइनबोर्ड पर स्पष्ट उल्लेख है कि “इस इलाके में गैर-मुस्लिमों का आना प्रतिबन्धित है…”। यह काबा के उन दिनों की याद ताज़ा करता है, जब नये-नये आये इस्लाम ने इस इलाके पर अपना कब्जा कर लिया था। इस इलाके में गैर-मुस्लिमों का प्रवेश इसीलिये प्रतिबन्धित किया गया है, ताकि इस कब्जे के निशानों को छिपाया जा सके। जैसे-जैसे इस्लामी श्रद्धालु काबा की ओर बढ़ता है, उस भक्त को अपना सिर मुंडाने और दाढ़ी साफ़ कराने को कहा जाता है। इसके बाद वह सिर्फ़ “बिना सिले हुए दो सफ़ेद कपड़े” लपेट कर ही आगे बढ़ सकता है। जिसमें से एक कमर पर लपेटा जाता है व दूसरा कंधे पर रखा जाता है। यह दोनों ही संस्कार प्राचीन काल से हिन्दू मन्दिरों को स्वच्छ और पवित्र रखने हेतु वैदिक अभ्यास के तरीके हैं, यह मुस्लिम परम्परा में कब से आये, जबकि मुस्लिम परम्परा में दाढ़ी साफ़ करने को तो गैर-इस्लामिक बताया गया है? मक्का की मुख्य प्रतीक दरगाह जिसे काबा कहा जाता है, उसे एक बड़े से काले कपड़े से ढँका गया है। यह प्रथा भी “मूल प्रतीक” पर ध्यान न जाने देने के लिये एक छद्म-आवरण के रूप में उन्हीं दिनों से प्रारम्भ की गई होगी, वरना उसे इस तरह काले कपड़े में ढँकने की क्या आवश्यकता है?

“इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका” के अनुसार काबा में 360 मूर्तियाँ थीं। पारम्परिक अरबी आलेखों में उल्लेख है कि जब एक भीषण तूफ़ान से 360 मूर्तियाँ नष्ट हो गईं, तब भी शनि, चन्द्रमा और एक अन्य मूर्ति को प्रकृति द्वारा खण्डित नहीं किया जा सका। यह दर्शाता है कि काबा में स्थापित उस विशाल शिव मन्दिर के साथ अरब लोगों द्वारा नवग्रह की पूजा की जाती थी। भारत में आज भी नवग्रह पूजा की परम्परा जारी है और इसमें से दो मुख्य ग्रह हैं शनि और चन्द्रमा। भारतीय संस्कृति और परम्परा में भी चन्द्रमा को हमेशा शिव के माथे पर विराजित बताया गया है, और इस बात की पूरी सम्भावना है कि यह चन्द्रमा “काबा” के रास्ते इस्लाम ने, उनके झण्डे में अपनाया हो।

काबा से जुड़ी एक और हिन्दू संस्कृति परम्परा है “पवित्र गंगा” की अवधारणा। जैसा कि सभी जानते हैं भारतीय संस्कृति में शिव के साथ गंगा और चन्द्रमा के रिश्ते को कभी अलग नहीं किया जा सकता। जहाँ भी शिव होंगे, पवित्र गंगा की अवधारणा निश्चित ही मौजूद होती है। काबा के पास भी एक पवित्र झरना पाया जाता है, इसका पानी भी पवित्र माना जाता है, क्योंकि इस्लामिक काल से पहले भी इसे पवित्र (आबे ज़म-ज़म) ही माना जाता था। आज भी मुस्लिम श्रद्धालु हज के दौरान इस आबे ज़मज़म को अपने साथ बोतल में भरकर ले जाते हैं। ऐसा क्यों है कि कुम्भ में शामिल होने वाले हिन्दुओं द्वारा गंगाजल को पवित्र मानने और उसे बोतलों में भरकर घरों में ले जाने, तथा इसी प्रकार हज की इस परम्परा में इतनी समानता है? इसके पीछे क्या कारण है।

काबा में मुस्लिम श्रद्धालु उस पवित्र जगह की सात बार परिक्रमा करते हैं, दुनिया की किसी भी मस्जिद में “परिक्रमा” की कोई परम्परा नहीं है, ऐसा क्यों? हिन्दू संस्कृति में प्रत्येक मन्दिर में मूर्ति की परिक्रमा करने की परम्परा सदियों पुरानी है। क्या काबा में यह “परिक्रमा परम्परा” पुरातन शिव मन्दिर होने के काल से चली आ रही है? अन्तर सिर्फ़ इतना है कि मुस्लिम श्रद्धालु ये परिक्रमा उल्टी ओर (Anticlockwise) करते हैं, जबकि हिन्दू भक्त सीधी तरफ़ यानी Clockwise। लेकिन हो सकता है कि यह बारीक सा अन्तर इस्लाम के आगमन के बाद किया गया हो, जिस प्रकार उर्दू भी दांये से बांये लिखी जाती है, उसी तर्ज पर। “सात” परिक्रमाओं की परम्परा संस्कृत में “सप्तपदी” के नाम से जानी जाती है, जो कि हिन्दुओं में पवित्र विवाह के दौरान अग्नि के चारों तरफ़ लिये जाते हैं। “मखा” का मतलब होता है “अग्नि”, और पश्चिम एशिया स्थित “मक्का” में अग्नि के सात फ़ेरे लिया जाना किस संस्कृति की ओर इशारा करता है?

यह बात तो पहले से ही स्थापित है और लगभग सभी विद्वान इस पर एकमत हैं कि विश्व की सबसे प्राचीन भाषा पाली, प्राकृत और संस्कृत हैं। कुर-आन का एक पद्य “यजुर्वेद” के एक छन्द का हूबहू अनुवाद है, यह बिन्दु विख्यात इतिहास शोधक पण्डित सातवलेकर ने अपने एक लेख में दर्शाया है। एक और विद्वान ने निम्नलिखित व्याख्या और उसकी शिक्षा को कुरान में और केन उपनिषद के 1.7 श्लोक में एक जैसा पाया है।

कुरान में उल्लेख इस प्रकार है –
“दृष्टि उसे महसूस नहीं कर सकती, लेकिन वह मनुष्य की दृष्टि को महसूस कर सकता है, वह सभी रहस्यों को जानता है और उनसे परिचित है…”

केन उपनिषद में इस प्रकार है –

“वह” आँखों से नहीं देखा जा सकता, लेकिन उसके जरिये आँखें बहुत कुछ देखती हैं, वह भगवान है या कुछ और जिसकी इस प्रकट दुनिया में हम पूजा करते हैं…”

इसका सरल सा मतलब है कि : भगवान एक है और वह किसी भी सांसारिक या ऐन्द्रिय अनुभव से परे है।

इस्लाम के अस्तित्व में आने के 1300 वर्ष हो जाने के बावजूद कई हिन्दू संस्कार, परम्परायें और विधियाँ आज भी पश्चिम एशिया में विद्यमान हैं। आईये देखते हैं कि कौन-कौन सी हिन्दू परम्परायें इस्लाम में अभी भी मौजूद हैं – हिन्दुओं की मान्यता है कि 33 करोड़ देवताओं का एक देवकुल होता है, पश्चिम एशिया में भी इस्लाम के आने से पहले 33 भगवानों की पूजा की जाती थी। चन्द्रमा आधारित कैलेण्डर पश्चिम एशिया में हिन्दू शासनकाल के दौरान ही शुरु किया गया। मुस्लिम कैलेण्डर का माह “सफ़र” हिन्दुओं का “अधिक मास” ही है, मुस्लिम माह “रबी” असल में “रवि” (अर्थात सूर्य) का अपभ्रंश है (संस्कृत में “व” प्राकृत में कई जगह पर “ब” होता है)। मुस्लिम परम्परा “ग्यारहवीं शरीफ़”, और कुछ नहीं हिन्दू “एकादशी” ही है और दोनों का अर्थ भी समान ही है। इस्लाम की परम्परा “बकरीद”, वैदिक कालीन परम्परा “गो-मेध” और “अश्व-मेध” यज्ञ से ली गई है। संस्कृत में “ईद” का अर्थ है पूजा, इस्लाम में विशेष पूजा के दिन को “ईद” कहा गया है। संस्कृत और हिन्दू राशि चक्र में “मेष” का अर्थ मेमना, भेड़, बकरा होता है, प्राचीन काल में जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता था तब मांस के सेवन की दावत दी जाती थी। इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए इस्लाम ने इसे “बकरीद” के रूप में स्वीकार किया है (उल्लेखनीय है कि हिन्दी में भी “बकरी” का अर्थ बकरी ही होता है)। जिस प्रकार “ईद” का मतलब है पूजा, उसी प्रकार “गृह” का मतलब है घर, “ईदगृह = ईदगाह = पूजा का घर = पूजास्थल, इसी प्रकार “नमाज़” शब्द भी नम + यज्ञ से मिलकर बना है, “नम” अर्थात झुकना, “यज्ञ” अर्थात पूजा, इसलिये नम + यज्ञ = नमज्ञ = नमाज़ (पूजा के लिये झुकना)। इस्लाम में नमाज़ दिन में 5 बार पढ़ी जाती है जो कि वैदिक “पंचमहायज्ञ” का ही एक रूप है (दैनिक पाँच पूजा – पंचमहायज्ञ) जो कि वेदों में सभी व्यक्तियों के लिये दैनिक अनुष्ठान का एक हिस्सा है। वेदों में वर्णन है कि पूजा से पहले, “शरीरं शुद्धयर्थं पंचगंगा न्यासः” अर्थात पूजा से पहले शरीर के पाँचों अंगों को गंगाजल से धोया जाये, इसी प्रकार इस्लाम में नमाज़ से पहले शरीर के पाँचों भागों को स्वच्छ किया जाता है।

इस्लाम में “ईद-उल-फ़ितर” भी मनाया जाता है, जिसका मतलब है “पितरों की ईद” या पितरों की पूजा, अर्थात पूर्वजों का स्मरण करना और उनकी पूजा करना, यह सनातन काल से हिन्दू परम्परा का एक अंग रहा है। हिन्दू लोग “पितर-पक्ष” में अपने पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिये पूजा-हवन करते हैं उन्हें याद करते हैं यही परम्परा इस्लाम में ईद-उल-फ़ितर (पितरों की पूजा) के नाम से जानी जाती है। प्रत्येक मुख्य त्योहार और उत्सव के पहले चन्द्रमा की कलायें देखना, चन्द्रोदय और चन्द्रास्त देखना भी हिन्दू संस्कृति से ही लिया गया है, इस्लाम के आने से हजारों साल पहले से हिन्दू संकष्टी और विनायकी चतुर्थी पर चन्द्रमा के उदय के आधार पर ही उपवास तोड़ते हैं। यहाँ तक कि “अरब” शब्द भी संस्कृत की ही उत्पत्ति है, इसका मूल शब्द था “अरबस्तान” (प्राकृत में “ब” संस्कृत में “व” बनता है अतः “अरवस्तान”)। संस्कृत में “अरव” का अर्थ होता है “घोड़ा” अर्थात “घोड़ों का प्रदेश = अरवस्तान” (अरबी घोड़े आज भी विश्वप्रसिद्ध हैं) अपभ्रंश होते-होते अरवस्तान = अरबस्तान = अरब प्रदेश।

चन्द्रमा के बारे में विभिन्न नक्षत्रीय तारामंडलों और ब्रह्माण्ड की रचना के बारे में वैदिक विवरण कुरान में भी भाग 1, अध्याय 2, पैराग्राफ़ 113, 114, 115, 158 और 189 तथा अध्याय 9, पैराग्राफ़ 37 व अध्याय 10 पैराग्राफ़ 4 से 7 में वैसा ही दिया गया है। हिन्दुओं की भांति इस्लाम में भी वर्ष के चार महीने पवित्र माने जाते हैं। इस दौरान भक्तगण बुरे कर्मों से बचते हैं और अपने भगवान का ध्यान करते हैं, यह परम्परा भी हिन्दुओं के “चातुर्मास” से ली गई है। “शबे-बारात” शिवरात्रि का ही एक अपभ्रंश है, जैसा कि सिद्ध करने की कोशिश है कि काबा में एक विशाल शिव मन्दिर था, तत्कालीन लोग शिव की पूजा करते थे और शिवरात्रि मनाते थे, शिव विवाह के इस पर्व को इस्लाम में “शब-ए-बारात” का स्वरूप प्राप्त हुआ।

ब्रिटैनिका इनसाइक्लोपीडिया के अनुसार काबा की दीवारों पर कई शिलालेख और स्क्रिप्ट मौजूद हैं, लेकिन किसी को भी उनका अध्ययन करने की अनुमति नहीं दी जाती है, एक अमेरिकन इतिहासकार ने इस सम्बन्ध में पत्र व्यवहार किया था, लेकिन उसे भी मना कर दिया गया। लेकिन प्रत्यक्ष देखने वालों का मानना है कि उसमें से कुछ शिलालेख संस्कृत, पाली या प्राकृत भाषा में हो सकते हैं। जब तक उनका अध्ययन नहीं किया जायेगा, विस्तार से इस सम्बन्ध में कुछ और बता पाना मुश्किल है।

Sunday, June 10, 2012

१९९१ की आर्थिक संकट का सत्य


१९९१ की आर्थिक संकट का सत्य

जो आप सब जानते हैं या आप सभी ने जो पढ़ा है, वो अधुरा सत्य है।
१९९१ मे हमारे देश मे जब आर्थिक मंदी आई थी। तब प.व नरसिम्हा राव ने अपने एक नजदीकी को उनकी शैक्षिक योग्यता को देख कर उन्हे वित्त मंत्री बना दिया और वे थे हमारे देश के वर्तमान समय के प्रधानमंत्री मनमोहन सिन्ह।
उस समय १९९१ मे नया शब्द आया "globalization" जो इनकी महरबानी थी।
तो मनमोहन सिन्ह जी आये और उन्होने कहा की globalization के लिये हमे अपनी मुद्रा का currency का devaluation करना है, यानी मुद्रा अवमूल्यन करना है, बोले ज्यादा नही करुंगा बस १२ या १३% ही करुंगा और होते होते ये जाकर २३% पे रुका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप दोनो को मिला कर ये करीब ३०से ३५% मुद्रा अवमूल्यन तभी १९९१ मे हो गया, और ये रोना हम आज तक रोते आ रहें की डालर आज ५६ रुपय का हो गया। तो जी मुद्रा अवमूल्यन करके हम global होगये इसके बाद।
इसके बाद हमारे मनमोहन सिन्ह ने क्या कहा की आयात शुल्क यानी import duty कम क्र दीजिये तो हम और ज्यादा ।
तीसरी बात ये कही गयी की हमारी सरकार को "social expenditure" सामाजिक खर्च कम करने चाहीये तो ये भी किया।
अब इसके बाद हमारे वित्त मंत्री ने कहा की विदेशी निवेश संस्थानों "foreign investment institutes" को आने दो तो हम ज्यादा global हो जायेंगे और आज हमारे देश मे ज्यादातर कंपनियां विदेशी हैं देशी कंपनियों को या तो  मे ले लिया या फ़िर बंद करा दिया।
और ये सब किसके कहने पे किया ये सब किया के कहने पे क्यों किया क्योंकी उनसे इन्होने लोन लिया था। तो उनकी शर्ते तो माननी थी ना, अच्छा मुझे ये बताने की जरूरत तो है नही की world bank या ऐसी सन्स्थाओं के उपर पूरा अधिग्रहण है किसका उन पांच महा देशों का जिनमे एक अमरीका है।
तो हमारे वित्त मंत्री ने आर्थिक संकट को दूर कहां किया था उन्होंने तो उसे टाला था। "globalization" के नाम पर..... जिसका असली चेहरा अगर देखना होतो जरा south korea,  brazil या latin America के किसी भी देश का इतिहास उठा कर देखिये कि ये globalization का कीड़ा दीमक की तरह खोखला कर देता है, देश को.......!!

तो मेरे मित्र हमे जानना होगा हर कथा और हर तथ्य का सत्य तभी हम लड़ सकेंगे।

जय हिन्द जय भारत.....!!  

देश के प्रिय अभिनेताओं का सत्य.....



सबसे पहले तो मे आपको ये कहना चाहता हूं के जब जब इस देश के साहित्य और संस्कृति की बात आयेगी तब-तब मै यही बात बोलूंगा की देश मे एक दो देश भक्तों को छोड़ कर कभी गैर मज़हबी लोगों ने हमारा साथ नही दिया यही सेकूलरवाद का ढोंग देखते १९४७ से आज २०१२ आ गयी सिवाये बरबादी के कुछ नही हुआ।
दुसरी बात... आज आपके प्रिय अभिनेता पर प्रश्न उठा तो आप बॊखला उठे ये तो केवल एक उधारण मात्र था। एक बात ध्यान से सोचों की हमारी भारतीय फ़िल्म जगत के लोग रोज़ाना विदेश जाते हैं और ज्यादा तर सभी जाते हैं तो अमरीका वाले केवल शाहरुख को ही क्यों रोकते हैं। मैने कभी नही सुना की बोमन इरानी को रोक लिया हो राम गोपाल वर्मा को रोक लिया हो..... या अन्य किसी को रोक लिया हो।
वो फ़.बी.आई/सी.आई.ए के अधिकारी इसी खोज खबर पे रहते हैं, मेरे मित्र कुछ तो सोचा होगा जो इसे रोका होगा ये जब जब गया है तब तब रोका गया है, और आगे भी रोका जायेगा।
तीसरी बात... मै आप लोगों को ये स्पश्ट शब्दों मे कहे देता हूं की देश मे क्रांती लाने के लिये हम इन अभिनेताओं पर निर्भर नही रह सकते इस लिये हमे उठ्ना होगा गम्भीरता से समझना होगा कोइ शाहरुख, आमिर, सलमान, संजय द्त्त ये काम कर नही सकते हमें ही जानना होगा की हम क्या थे और क्या हो गये हैं।