Wednesday, June 12, 2013

अशोक कैंथ के प्रयास रंग लाए

चित्रकार द्वारा बनायी अशोक वाटिका की एक काल्पनिक झांकी

और यह है श्रीलंका के सीता एलिया गांव में अशोक वाटिका का बाहरी दृश्य


मंदिर में जीर्णोद्धार कार्य चल रहा है
                                       

जिस तरह पवनपुत्र हनुमान को माता सीता जी की खोज-खबर लाने के लिए सात योजन समुद्र लांघना पड़ा और राक्षसों से लोहा लेना पड़ा था, ठीक उसी प्रकार श्रीलंका स्थित माता सीता जी स्मृति स्थली को विधर्मियों से मुक्त करवाने के लिए पंजाब के धर्मनिष्ठ पुत्र श्री अशोक कैंथ को अनेक बाधाओं को लांघना पड़ा। उनके प्रयासों व श्रीलंका सरकार के सहयोग से आज रावण की अशोक वाटिका सनातनधर्मियों के अधिकार क्षेत्र में है। वहां स्थित प्राचीन मंदिर के पुनरुद्वार का काम भी शुरू हो चुका है। अब तक प्रचार से दूर चुपचाप तरीके से अशोक वाटिका मुक्ति के कार्य में लगे श्री कैंथ ने पहली बार मीडिया के सामने इसका खुलासा किया ताकि अभी तक लगभग गुमनाम रहे इस तीर्थ का पुण्य दुनिया के लोग भी उठा सकें। अमरीका की अंतरिक्ष एजेंसी "नासा" द्वारा खोजे गए राम सेतु के बाद अब श्री कैंथ द्वारा खोजे गए साक्ष्यों से रामायण की प्रमाणिकता को और बल मिला है।
उल्लेखनीय है कि श्रीलंका स्थित अशोक वाटिका वह तीर्थस्थान है जहां पर हरण के बाद लंकापति रावण ने माता सीता को बंदी बनाकर रखा था। हर्ष की बात है कि यह स्थल आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है और यहां माता सीता के अतिरिक्त महाबली हनुमान द्वारा की गई लीलाओं के कई चिन्ह भी मौजूद हैं। इस स्थल के बारे में स्थानीय निवासियों के अतिरिक्त बहुत कम लोग इसके बारे में जानकारी रखते हैं।
पंजाब में फगवाड़ा नगर के पास छोटे से कस्बे बंगा के निवासी श्री अशोक कैंथ लगभग 15 साल पहले कुवैत गए और वहां न्याय मंत्रालय के तहत इलेक्ट्रिक सुपरवाइजर की नौकरी की। नवम्बर 2004 में वह कुवैत से भारत पहुंचे। वे कुछ दिनों के लिए बीच में श्रीलंका में भी रुके थे। यहां उनके मन में विचार कौंधा कि हो न हो यह श्रीलंका वही रावण की लंका है जिसका वर्णन रामायण में किया गया है। उनमें रामायणकालीन जानकारियां व स्थल खोजने की जिज्ञासा पैदा हुई। वे कोलंबो स्थित नटराजन मंदिर के पुजारी स्वामी रामटीक से मिले और उन्होंने माता सीता जी के चरणों से पावन हुई अशोक वाटिका व अन्य पौराणिक स्थलों की चर्चा की। स्वामी जी ने उनको अशोक वाटिका के बारे में बताया। उसके बाद श्री कैंथ अशोक वाटिका के बारे में अधिक जानने के लिए लगभग ग्यारह बार श्रीलंका गए और आखिरकार उस जगह पहुंच ही गए जहां राक्षसी त्रिजटा ने माता सीता की धर्ममाता का कर्तव्य निभाया था। यह स्थान कोलंबो से कैंडी शहर की ओर जाने वाली सड़क पर दो सौ किलोमीटर दूर स्थित नुआर एलिया नामक कस्बे से सात किलोमीटर पश्चिम में सीता एलिया के नाम से जाना जाता है। इस जगह पर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में एक प्राचीन मंदिर है जिसे स्थानीय भाषा में सीता अम्मा कोविल (सीता माता का मन्दिर) कहते हैं। वर्णन मिलता है कि अशोक वाटिका बहुत मनोरम थी और यह बात आज भी सत्य साबित होती है। यहां आज भी चारों ओर प्रकृति के मनोरम दृश्य हैं। पहाड़ी क्षेत्र में स्थित अशोक वाटिका चारों ओर से सुगंधित पेड़ों-लताओं से घिरी है और यहां बेहद दुर्लभ जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं। परन्तु मंदिर की दुर्दशा को देखकर व्यथित मन से श्री कैंथ भारत लौटे और तब उन्होंने संकल्प किया कि वे मंदिर का पुनरोद्धार अवश्य करवाएंगे। इस काम में सहयोग के लिए उन्होंने भारत आकर देश के गण्यमान्य लोगों, जैसे- श्री अशोक सिंहल, श्री केदारनाथ साहनी, श्री विष्णु हरि डालमिया, श्री अमिताभ बच्चन, सूर्या रोशनी के स्वामी श्री बी.डी. अग्रवाल, मुगल महल होटल श्रृंखला के श्री अशोक कालड़ा, कनाडा मूल के कुवैत स्थित उद्योगपति श्री अशोक कुमार कैंथ, फिल्मी सितारों, संतों-महात्माओं, लेखकों, विद्वानों, समाचार पत्रों के संपादकों को पत्र लिखे। उनको इन पत्रों का सकारात्मक उत्तर मिला।
श्री कैंथ ने अपने इस उद्देश्य के लिए श्रीलंका के सेंट्रल प्रोविंस के मुख्यमंत्री श्री राधाकृष्ण और कृषि मंत्री श्री मुत्थु शिवलिंगम से चर्चा की जो काफी सकारात्मक रही। श्री कैंथ को बताया गया कि श्रीलंका सरकार ने इस मंदिर के लिए 1996 में एक न्यास की स्थापना की थी, परन्तु धनाभाव के कारण पुनरोद्धार का काम शुरु नहीं हो पाया है। लेकिन श्रीलंका के उक्त राजनेताओं ने मंदिर निर्माण में हरसंभव सहायता व सहयोग देने का आश्वासन दिया। विगत वर्ष इस संबंध में श्री कैंथ श्रीलंका के राष्ट्रपति श्री महेंद्र राजपक्षे से भी मिले और उनको मंदिर निर्माण संबंधी जानकारी दी। वहां भारतीय राजदूत श्रीमती निरुपमा राव ने भी श्री कैंथ को हरसंभव सहायता देने का आश्वासन दिया। राजनीतिक आश्वासन के बाद भी श्री कैंथ के इस पुण्य कार्य में सभी बाधाएं दूर नहीं हुई थीं, क्योंकि इस मंदिर पर वहां के मुस्लिम समुदाय का कब्जा था और वे वहां मांस-मदिरा का सेवन कर हर रोज मंदिर की पवित्रता भंग करते थे। इसके अलावा भी वहां की 46 से अधिक ईसाई व अन्य संस्थाओं ने मंदिर पुनरोद्धार के काम का यह कहकर विरोध करना शुरु कर दिया था कि इससे क्षेत्र में हिन्दुत्व को प्रोत्साहन मिलेगा। श्री कैंथ घबराए नहीं और धीरे-धीरे सभी बाधाओं को पार कर लिया गया। आज मंदिर पुनरोद्धार का काम जारी है। श्री कैंथ के अनुसार संभवत: आने वाले नवरात्रों में ही बंगा कस्बे में विशाल समारोह आयोजित करके मंदिर के लिए देव प्रतिमाएं भेजी जाएंगी। इस कार्यक्रम में श्रीलंका के सेंट्रल प्रोविंस के मुख्यमंत्री श्री राधाकृष्ण या कृषि मंत्री श्री मुत्थु शिवलिंगम पधारेंगे और प्रतिमाएं उन्हें सुपुर्द की जाएंगी। इसके लिए बंगा में श्री अशोक वाटिका (श्रीलंका) धार्मिक व्यवस्था सुधार कमेटी का गठन किया गया है, जिसमें स्वामी कृष्णानंद जी बीनेवाल को अध्यक्ष, श्री अशोक कैंथ को संयोजक, बाबा देवेन्द्र कौड़ा व शिव कौड़ा को प्रबंधक बनाया गया है। कार्यक्रम की रूपरेखा राज्य के जाने-माने राष्ट्रवादी पत्रकार डा. जवाहर धीर तैयार कर रहे हैं। सीता अम्मा कोविल मंदिर परिसर में रहने वाली दस महिलाओं को उद्योगपति श्री अशोक कुमार कैंथ द्वारा मासिक पेंशन देने की घोषणा की गई है और मंदिर में प्रसाद के लिए मुगल होटल समूह के प्रमुख श्री अशोक कुमार कालड़ा ने पांच सालों के लिए अनुबंध किया है।

Wednesday, June 5, 2013

हम भारतीय, सिकंदर?? को सिकंदर महान क्यों माने

हम भारतीय, सिकंदर ?? को सिकंदर महान क्यों माने

सिकंदर अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् अपने सौतेले व चचेरे भाइयों को कत्ल करने के बाद मेसेडोनिया के सिंहासन पर बैठा था। अपनी महत्वकन्क्षा के कारण वह विश्व विजय को निकला। अपने आसपास के विद्रोहियों का दमन करके उसने इरान पर आक्रमण किया,इरान को जीतने के बाद गोर्दियास को जीता । गोर्दियास को जीतने के बाद टायर को नष्ट कर डाला। बेबीलोन को जीतकर पूरे राज्य में आग लगवा दी। बाद में अफगानिस्तान के क्षेत्र को रोंद्ता हुआ सिन्धु नदी तक चढ़ आया।

सिकंदर को अपनी जीतों से घमंड होने लगा था । वह अपने को इश्वर का अवतार मानने लगा,तथा अपने को पूजा का अधिकारी समझने लगा। परंतु भारत में उसका वो मान मर्दन हुआ जो कि उसकी मौत का कारण बना।

सिन्धु को पार करने के बाद भारतt के तीन छोटे छोटे राज्य थे। १--,ताक्स्शिला जहाँ का राजा अम्भी था। २--पोरस। ३--अम्भिसार ,जो की काश्मीर के चारो और फैला हुआ था। अम्भी का पुरु से पुराना बैर था,इसलिए उसने सिकंदर से हाथ मिला लिया। अम्भिसार ने भी तठस्त रहकर सिकंदर की राह छोड़ दी, परंतु भारतमाता के वीर पुत्र पुरु ने सिकंदर से दो-दो हाथ करने का निर्णय कर लिया। आगे के युद्ध का वर्णन में यूरोपीय इतिहासकारों के वर्णन को ध्यान में रखकर करूंगा। सिकंदर ने आम्भी की साहयता से सिन्धु पर एक स्थायी पुल का निर्माण कर लिया।
प्लुतार्च के अनुसार,"२०,००० पैदल व १५००० घुड़सवार सिकंदर की सेना पुरु की सेना से बहुत अधिक थी,तथा सिकंदर की साहयता आम्भी की सेना ने भी की थी। "

कर्तियास लिखता है की, "सिकंदर झेलम के दूसरी और पड़ाव डाले हुए था। सिकंदर की सेना का एक भाग झेहलम नदी के एक द्वीप में पहुच गया। पुरु के सैनिक भी उस द्वीप में तैरकर पहुच गए। उन्होंने यूनानी सैनिको के अग्रिम दल पर हमला बोल दिया। अनेक यूनानी सैनिको को मार डाला गया। बचे कुचे सैनिक नदी में कूद गए और उसी में डूब गए। "
बाकि बची अपनी सेना के साथ सिकंदर रात में नावों के द्वारा हरनपुर से ६० किलोमीटर ऊपर की और पहुच गया। और वहीं से नदी को पार किया। वहीं पर भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्ध में पुरु का बड़ा पुत्र वीरगति को प्राप्त हुआ।

एरियन लिखता है कि,"भारतीय युवराज ने अकेले ही सिकंदर के घेरे में घुसकर सिकंदर को घायल कर दिया और उसके घोडे 'बुसे फेलास 'को मार डाला।"
ये भी कहा जाता है की पुरु के हाथी दल-दल में फंस गए थे,तो कर्तियास लिखता है कि,"इन पशुओं ने घोर आतंक पैदा कर दिया था। उनकी भीषण चीत्कार से सिकंदर के घोडे न केवल डर रहे थे बल्कि बिगड़कर भाग भी रहे थे। ----------------अनेको विजयों के ये शिरोमणि अब ऐसे स्थानों की खोज में लग गए जहाँ इनको शरण मिल सके। सिकंदर ने छोटे शास्त्रों से सुसज्जित सेना को हाथियों से निपटने की आज्ञा दी। इस आक्रमण से चिड़कर हाथियों ने सिकंदर की सेना को अपने पावों में कुचलना शुरू कर दिया।"
वह आगे लिखता है कि,"सर्वाधिक ह्रदयविदारक द्रश्य यह था कि, यह मजबूत कद वाला पशु यूनानी सैनिको को अपनी सूंड सेपकड़ लेता व अपने महावत को सोंप देता और वो उसका सर धड से तुंरत अलग कर देता। --------------इसी प्रकार सारा दिन समाप्त हो जाता,और युद्ध चलता ही रहता। "
इसी प्रकार दियोदोरस लिखता है की,"हाथियों में अपार बल था,और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए। अपने पैरों के तले उन्होंने बहुत सारे यूनानी सैनिको को चूर-चूर कर दिया।
कहा जाता है की पुरु ने अनाव्यशक रक्तपात रोकने के लिए सिकंदर को अकेले ही निपटने का प्रस्ताव रक्खा था। परन्तु सिकंदर ने भयातुर उस वीर प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।
इथोपियाई महाकाव्यों का संपादन करने वाले श्री इ० ए० दब्ल्यु०बैज लिखते है की,"जेहलम के युद्ध में सिकंदर की अश्व सेना का अधिकांश भाग मारा गया। सिकंदर ने अनुभव किया कि यदि में लडाई को आगे जारी रखूँगा,तो पूर्ण रूप से अपना नाश कर लूँगा।अतः उसने युद्ध बंद करने की पुरु से प्रार्थना की। भारतीय परम्परा के अनुसार पुरु ने शत्रु का वद्ध नही किया। इसके पश्चात संधि पर हस्ताक्षर हुए,और सिकंदर ने पुरु को अन्य प्रदेश जीतने में सहायता की"।
बिल्कुल साफ़ है की प्राचीन भारत की रक्षात्मक दिवार से टकराने के बाद सिकंदर का घमंड चूर हो चुका था। उसके सैनिक भी डरकर विद्रोह कर चुके थे । तब सिकंदर ने पुरु से वापस जाने की आज्ञा मांगी। पुरु ने सिकंदर को उस मार्ग से जाने को मना कर दिया जिससे वह आया था। और अपने प्रदेश से दक्खिन की और से जाने का मार्ग दिया।
जिन मार्गो से सिकंदर वापस जा रहा था,उसके सैनिको ने भूख के कारण राहगीरों को लूटना शुरू कर दिया।इसी लूट को भारतीय इतिहास में सिकंदर की दक्खिन की और की विजय लिख दिया। परंतु इसी वापसी में मालवी नामक एक छोटे से भारतीय गणराज्य ने सिकंदर की लूटपाट का विरोध किया।इस लडाई में सिकंदर बुरी तरह घायल हो गया।
प्लुतार्च लिखता है कि,"भारत में सबसे अधिक खुन्कार लड़ाकू जाती मलावी लोगो के द्वारा सिकंदर के टुकड़े टुकड़े होने ही वाले थे,---------------उनकी तलवारे व भाले सिकंदर के कवचों को भेद गए थे।और सिकंदर को बुरी तरह से आहात कर दिया।शत्रु का एक तीर उसका बख्तर पार करके उसकी पसलियों में घुस गया।सिकंदर घुटनों के बल गिर गया। शत्रु उसका शीश उतारने ही वाले थे की प्युसेस्तास व लिम्नेयास आगे आए। किंतु उनमे से एक तो मार दिया गया तथा दूसरा बुरी तरह घायल हो गया।"
इसी भरी markat में सिकंदर की गर्दन पर एक लोहे की lathi का प्रहार हुआ और सिकंदर अचेत हो गया। उसके अन्ग्रक्षक उसी अवस्था में सिकंदर को निकाल ले गए। भारत में सिकंदर का संघर्ष सिकंदर की मोत का कारण बन गया।
अपने देश वापस जाते हुए वह बेबीलोन में रुका। भारत विजय करने में उसका घमंड चूर चूर हो गया। इसी कारण वह अत्यधिक मद्यपान करने लगा,और ज्वर से पीड़ित हो गया। तथा कुछ दिन बाद उसी ज्वर ने उसकी जान ले ली।
स्पष्ट रूप से पता चलता है कि सिकंदर भारत के एक भी राज्य को नही जीत पाया । परंतू पुरु से इतनी मार खाने के बाद भी इतिहास में जोड़ दिया गया कि सिकंदर ने पुरु पर जीत हासिल की।भारत में भी महान राजा पुरु की जीत को पुरु की हार ही बताया जाता है।यूनान सिकंदर को महान कह सकता है लेकिन भारतीय इतिहास में सिकंदर को नही बल्कि उस पुरु को महान लिखना चाहिए जिन्होंने एक विदेशी आक्रान्ता का मानमर्दन किया।