Friday, November 19, 2021

डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत और आदियोगी का सिद्धांत

आज डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत हमें यह बताता है कि किस प्रकार मानव जाति का विकास हुआ उन्हें किन किन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। डार्विन ने अपने विभिन्न शोधों के उपरांत लगभग 200 वर्ष पूर्व इस अवधारणा को मानव जाति के समक्ष रखा।
अगर हम मानव विकास को गुणात्मक रूप में देखते हैं तो आदि योगी ने लगभग डार्विन से 15000 वर्ष पूर्व कहा था कि जीवन का प्रारंभ एक मछली से हुआ, जीवन का आरंभ इस पृथ्वी पर जल में हुआ। जिसे हम मत्स्य अवतार के तौर पर जानते हैं। इसके पश्चात विकास की अगली कड़ी में एक ऐसा जंतु आया जो कि उभयचर की श्रेणी में रखा गया जल तथा पृथ्वी दोनों प्रवास करने में सक्षम जिसे कूर्म कहा गया। अन्य अनेकों जीवजंतुओं के उपरांत विकास की कड़ी में सबसे सार्थक जीव स्तनधारी जीव हुआ हुआ एक जंगली सूअर जो की पूरी तरह पृथ्वी पर वास करने वाले शारीरिक रूप से ताकतवर और अपनी भौतिकता में गहराई से निहित था। विकास की कड़ी में अगला जंतु हुआ आधा नर और आधा पशु जिसे हम नरसिंह के नाम से जानते हैं, अगला सार्थक जंतु मानव विकास की कड़ी में हमने समझा वामन को जो कि एक बौना था। वामन के उपरांत विकास की कड़ी में अगला सबसे सार्थक जीव था एक मानव मन मस्तिष्क से सुदृढ़ तन से बलिष्ठ परंतु भावनात्मक रूप से कमजोर बड़े उग्र स्वभाव का जिसे हम परशुराम के रूप में जानते हैं। मानव विकास की कड़ी में मानव का अगला सबसे सार्थक रूप हमारे सामने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का है, जो कि सरल, शांत, भौतिक और भावनात्मक रूप से संतुलित मानव के रूप में विकसित हुआ जिसे प्रत्येक घर में आज भी पूजनीय समझा जाता है। राम के बाद आई श्री कृष्ण इस पृथ्वी पर सबके प्यारे, नटखट, आकर्षक और मनमोहक पुरुष। आधुनिक मानव सभ्यता और विकासवादी स्मृति के रूप में हमारे समक्ष है ध्यान मुद्रा में रहने वाले ध्यानमय पुरुष जिन्हें स्वयं बुद्ध कहा जाता है। बुद्ध ध्यान में इसलिए है क्योंकि यह मानव विकास में मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक विकास में सर्वोत्तम रूप है, इसके बाद भौतिक रूप से और विकास संभव ही नहीं है इसलिए ही बुद्ध ध्यानमय हैं। मत्स्य, कुर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण और बुद्ध मानव के भौतिक विकास की बात जो 200 वर्ष पूर्व डार्विन द्वारा बताई गई, भारतीय लोग मानव विकास की इस शृंखला को कई सहस्र वर्षों से विष्णु के नौ अवतारों के रूप में जानते समझते और बताते आए हैं।
आदियोगी कहते हैं कि मानव शरीर से उत्पन्न होने वाली लगभग 20% ऊर्जा ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा मानव मस्तिष्क उपयोग करता है। इस भौतिक मानव शरीर में इससे ज्यादा क्षमता नहीं है ऊर्जा उत्पन्न करने की इसलिए इस सृष्टि में उपस्थित अन्य आयामों को जानने समझने और एकमात्र साधन ध्यान है। जो भी सीमाएं प्रकृति ने हमारे लिए तय की है अगर उन से परे हम जाना चाहते हैं, यदि हम सत्य में प्रयास करने के इच्छुक हैं तो उन सभी आयामों से ऊंचा उठन के तरीकों प्रक्रियाओं को आदियोगी ने हमारे बीच रखा है।

Sunday, November 24, 2013

हिन्दू काल गणना

1. सम्वत्सर(hindu new year) की वैज्ञानिकता

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक पश्चिमी देशों में उनके अपने धर्म-ग्रन्थों के अनुसार मानव सृष्टि को मात्र पांच हजार वर्ष पुराना बताया जाता था। जबकि इस्लामी दर्शन में इस विषय पर स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा गया है। पाश्चात्य जगत के वैज्ञानिक भी अपने धर्म-ग्रन्थों की भांति ही यही राग अलापते रहे कि मानवीय सृष्टि का बहुत प्राचीन नहीं है। इसके विपरीत हिन्दू जीवन-दर्शन के अनुसार इस सृष्टि का प्रारम्भ हुए १ अरब, ९७ करोड़, २९ लाख, ४९ हजार, १० वर्ष बीत चुके हैं और अब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से उसका १ अरब, ९७ करोड़, २९ लाख, ४९ हजार, ११वां वर्ष प्रारम्भ हो रहा है। भूगर्भ से सम्बन्धित नवीनतम आविष्कारों के बाद तो पश्चिमी विद्वान और वैज्ञानिक भी इस तथ्य की पुष्टि करने लगे हैं कि हमारी यह सृष्टि प्राय: २ अरब वर्ष पुरानी है।


अपने देश में हेमाद्रि संकल्प में की गयी सृष्टि की व्याख्या के आधार पर इस समय स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत और चाक्षुष नामक छह मन्वन्तर पूर्ण होकर अब वैवस्वत मन्वन्तर के २७ महायुगों के कालखण्ड के बाद अठ्ठाइसवें महायुग के सतयुग, त्रेता, द्वापर नामक तीन युग भी अपना कार्यकाल पूरा कर चौथे युग अर्थात कलियुग के ५०११वें सम्वत्‌ का प्रारम्भ हो रहा है। इसी भांति विक्रम संवत्‌ २०६६ का भी श्रीगणेश हो रहा है।


हिन्दू जीवन-दर्शन की मान्यता है कि सृष्टिकर्ता भगवान्‌ व्रह्मा जी द्वारा प्रारम्भ की गयी मानवीय सृष्टि की कालगणना के अनुसार भारत में प्रचलित सम्वत्सर केवल हिन्दुओं, भारतवासियों का ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण संसार या समस्त मानवीय सृष्टि का सम्वत्सर है। इसलिए यह सकल व्रह्माण्ड के लिए नव वर्ष के आगमन का सूचक है।


व्रह्मा जी प्रणीत यह कालगणना निसर्ग अथवा प्रकृति पर आधारित होने के कारण पूरी तरह वैज्ञानिक है। अत: नक्षत्रों को आधार बनाकर जहां एक ओर विज्ञानसम्मत चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कात्तिर्क, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन नामक १२ मासों का विधान एक वर्ष में किया गया है, वहीं दूसरी ओर सप्ताह के सात दिवसों यथा रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार तथा शनिवार का नामकरण भी व्रह्मा जी ने विज्ञान के आधार पर किया है।


आधुनिक समय में सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित ईसाइयत के ग्रेगेरियन कैलेण्डर को दृष्टिपथ में रखकर अज्ञानी जनों द्वारा प्राय: यह प्रश्न किया जाता है कि व्रह्मा जी ने आधा चैत्र मास व्यतीत हो जाने पर नव सम्वत्सर और सूर्योदय से नवीन दिवस का प्रारम्भ होने का विधान क्यों किया है? इसी भांति सप्ताह का प्रथम दिवस सोमवार न होकर रविवार ही क्यों निर्धारित किया गया है? जैसा ऊपर कहा जा चुका है, व्रह्मा जी ने इस मानवीय सृष्टि की रचना तथा कालगणना का पूरा उपक्रम निसर्ग अथवा प्रकृति से तादात्म्य रखकर किया है। इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि ‘चैत्रमासे जगत्‌ व्रह्मा संसर्ज प्रथमेऽहनि, शुक्ल पक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदय सति।‘ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस को सूर्योदय से कालगणना का औचित्य इस तथ्य में निहित है कि सूर्य, चन्द्र, मंगल, पृथ्वी, नक्षत्रों आदि की रचना से पूर्व सम्पूर्ण त्रैलोक्य में घटाटोप अन्धकार छाया हुआ था। दिनकर(सूर्य) की उत्पत्ति के साथ इस धरा पर न केवल प्रकाश प्रारम्भ हुआ अपितु भगवान्‌ आदित्य की जीवनदायिनी ऊर्जा शक्ति के प्रभाव से पृथ्वी तल पर जीव-जगत का जीवन भी सम्भव हो सका। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के स्थान पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से वर्ष का आरम्भ, अर्द्धरात्रि के स्थान पर सूर्योदय से दिवस परिवर्तन की व्यवस्था तथा रविवार को सप्ताह का प्रथम दिवस घोषित करने का वैज्ञानिक आधार तिमिराच्छन्न अन्धकार को विदीर्ण कर प्रकाश की अनुपम छटा बिखेरने के साथ सृजन को सम्भव बनाने की भगवान्‌ भुवन भास्कर की अनुपमेय शक्ति में निहित है। वैसे भी इंग्लैण्ड के ग्रीनविच नामक स्थान से दिन परिवर्तन की व्यवस्था में अर्द्ध रात्रि के १२ बजे को आधार इसलिए बनाया गया है; क्योंकि जब इंग्लैण्ड में रात्रि के १२ बजते हैं, तब भारत में भगवान्‌ सूर्यदेव की अगवानी करने के लिए प्रात: ५.३० बजे होते हैं।


वारों के नामकरण की विज्ञान सम्मत प्रक्रिया में व्रह्मा जी ने स्पष्ट किया कि आकाश में ग्रहों की स्थिति सूर्य से प्रारम्भ होकर क्रमश: बुध, शुक्र, चन्द्र, मंगल, गुरु और शनि की है। पृथ्वी के उपग्रह चन्द्रमा सहित इन्हीं अन्य छह ग्रहों को साथ लेकर व्रह्मा जी ने सप्ताह के सात दिनों का नामकरण किया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि पृथ्वी अपने उपग्रह चन्द्रमा सहित स्वयं एक ग्रह है, किन्तु पृथ्वी पर उसके नाम से किसी दिवस का नामकरण नहीं किया जायेगा; किन्तु उसके उपग्रह चन्द्रमा को इस नामकरण में इसलिए स्थान दिया जायेगा; क्योंकि पृथ्वी के निकटस्थ होने के कारण चन्द्रमा आकाशमण्डल की रश्मियों को पृथ्वी तक पहुँचाने में संचार उपग्रह का कार्य सम्पादित करता है और उससे मानवीय जीवन बहुत गहरे रूप में प्रभावित होता है। लेकिन पृथ्वी पर यह गणना करते समय सूर्य के स्थान पर चन्द्र तथा चन्द्र के स्थान पर सूर्य अथवा रवि को रखा जायेगा।


हम सभी यह जानते हैं कि एक अहोरात्र या दिवस में २४ होरा या घण्टे होते हैं। व्रह्मा जी ने इन २४ होरा या घण्टों में से प्रत्येक होरा का स्वामी क्रमश: सूर्य, शुक्र, बुध, चन्द्र, शनि, गुरु और मंगल को घोषित करते हुए स्पष्ट किया कि सृष्टि की कालगणना के प्रथम दिवस पर अन्धकार को विदीर्ण कर भगवान्‌ भुवन भास्कर की प्रथम होरा से क्रमश: शुक्र की दूसरी, बुध की तीसरी, चन्द्रमा की चौथी, शनि की नौवीं, गुरु की छठी तथा मंगल की सातवीं होरा होगी। इस क्रम से इक्कीसवीं होरा पुन: मंगल की हुई। तदुपरान्त सूर्य की बाईसवीं, शुक्र की तेईसवीं और बुध की चौबीसवीं होरा के साथ एक अहोरात्र या दिवस पूर्ण हो गया। इसके बाद अगले दिन सूर्योदय के समय चन्द्रमा की होरा होने से दूसरे दिन का नामकरण सोमवार किया गया। अब इसी क्रम से चन्द्र की पहली, आठवीं और पंद्रहवीं, शनि की दूसरी, नववीं और सोलहवीं, गुरु की तीसरी, दशवीं और उन्नीसवीं, मंगल की चौथी, ग्यारहवीं और अठ्ठारहवीं, सूर्य की पाचवीं, बारहवीं और उन्नीसवीं, शुक्र की छठी, तेरहवीं और बीसवीं, बुध की सातवीं, चौदहवीं और इक्कीसवीं होरा होगी। बाईसवीं होरा पुन: चन्द्र, तेईसवीं शनि और चौबीसवीं होरा गुरु की होगी। अब तीसरे दिन सूर्योदय के समय पहली होरा मंगल की होने से सोमवार के बाद मंगलवार होना सुनिश्चित हुआ। इसी क्रम से सातों दिवसों की गणना करने पर वे क्रमश: बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार तथा शनिवार घोषित किये गये; क्योंकि मंगल से गणना करने पर बारहवीं होरा गुरु पर समाप्त होकर बाईसवीं होरा मंगल, तेईसवीं होरा रवि और चौबीसवीं होरा शुक्र की हुई। अब चौथे दिवस की पहली होरा बुध की होने से मंगलवार के बाद का दिन बुधवार कहा गया। अब बुधवार की पहली होरा से इक्कीसवीं होरा शुक्र की होकर बाईसवीं, तेईसवीं और चौबीसवीं होरा क्रमश: बुध, चन्द्र और शनि की होगी। तदुपरान्त पांचवें दिवस की पहली, होरा गुरु की होने से पांचवां दिवस गुरुवार हुआ। पुन: छठा दिवस शुक्रवार होगा; क्योंकि गुरु की पहली, आठवीं, पन्द्रहवीं और बाईसवीं होरा के पश्चात्‌ तेईसवीं होरा मंगल और चौबीसवीं होरा सूर्य की होगी। अब छठे दिवस की पहली होरा शुक्र की होगी। सप्ताह का अन्तिम दिवस शनिवार घोषित किया गया; क्योंकि शुक्र की पहली, आठवीं, पन्द्रहवीं और बाईसवीं होरा के उपरान्त बुध की तेईसवीं और चन्द्रमा की चौबीसवीं होरा पूर्ण होकर सातवें दिवस सूर्योदय के समय प्रथम होरा शनि की होगी।


संक्षेप में व्रह्मा जी प्रणीत इस कालगणना में नक्षत्रों, ऋतुओं, मासों, दिवसों आदि का निर्धारण पूरी तरह निसर्ग अथवा प्रकृति पर आधारित वैज्ञानिक रूप से किया गया है। दिवसों के नामकरण को प्राप्त विश्वव्यापी मान्यता इसी तथ्य का प्रतीक है।


2. पश्चिमी और भारतीय कालगणना का अंतर 

पाश्चात्य कालगणना (Western time calculations)
चिल्ड्रन्स ब्रिटानिका Vol 3-1964 में कैलेंडर के संदर्भ में उसके संक्षिप्त इतिहास का वर्णन किया गया है। कैलेंडर यानी समय विभाजन का तरीका-वर्ष, मास, दिन, का आधार, पृथ्वी की गति और चन्द्र की गति के आधार पर करना। लैटिन में Moon के लिए Luna शब्द है, अत: Lunar Month कहते हैं। लैटिन में Sun के लिए Sol शब्द है, अत: Solar Year वर्ष कहते हैं। आजकल इसका माप 365 दिन 5 घंटे 48 मिनिट व 46 सेकेण्ड है। चूंकि सौर वर्ष और चन्द्रमास का तालमेल नहीं है, अत: अनेक देशों में गड़बड़ रही।

दूसरी बात, समय का विभाजन ऐतिहासिक घटना के आधार पर करना। ईसाई मानते हैं कि ईसा का जन्म इतिहास की निर्णायक घटना है, इस आधार पर इतिहास को वे दो हिस्सों में विभाजित करते हैं। एक बी.सी. तथा दूसरा ए.डी.। B.C. का अर्थ है Before Christ - यह ईसा के उत्पन्न होने से पूर्व की घटनाओं पर लागू होता है। जो घटनाएं ईसा के जन्म के बाद हुर्इं उन्हें A.D. कहा जाता है जिसका अर्थ है Anno Domini अर्थात् In the year of our Lord. यह अलग बात है कि यह पद्धति ईसा के जन्म के बाद कुछ सदी तक प्रयोग में नहीं आती थी। 


रोमन कैलेण्डर-आज के ई। सन् का मूल रोमन संवत् है जो ईसा के जन्म से 753 वर्ष पूर्व रोम नगर की स्थापना के साथ प्रारंभ हुआ। प्रारंभ में इसमें दस माह का वर्ष होता था, जो मार्च से दिसम्बर तक चलता था तथा 304 दिन होते थे। बाद में राजा नूमा पिम्पोलियस ने इसमें दो माह Jonu Arius और Februarius जोड़कर वर्ष 12 माह का बनाया तथा इसमें दिन हुए 355, पर आगे के वर्षों में ग्रहीय गति से इनका अंतर बढ़ता गया, तब इसे ठीक 46 बी.सी. करने के लिए जूलियस सीजर ने वर्ष को 365 1/4 दिन का करने हेतु नये कैलेंडर का आदेश दिया तथा उस समय के वर्ष को कहा कि इसमें 445 1/4 दिन होंगे ताकि पूर्व में आया अंतर ठीक हो सके। इसलिए उस वर्ष यानी 46 बी.सी. को इतिहास में संभ्रम का वर्ष (Year of confusion) कहते हैं।


जूलियन कैलेंडर- जूलियस सीजर ने वर्ष को 365 1/4 दिन का करने के लिए एक व्यवस्था दी। क्रम से 31 व 30 दिन के माह निर्धारित किए तथा फरवरी 29 दिन की। Leap Year में फरवरी भी 30 दिन की कर दी। इसी के साथ इतिहास में अपना नाम अमर करने के लिए उसने वर्ष के सातवें महीने के पुराने नाम Quinitiles को बदलकर अपने नाम पर जुलाई किया, जो 31 दिन का था। बाद में सम्राट आगस्टस हुआ; उसने भी अपना नाम इतिहास में अमर करने हेतु आठवें महीने Sextilis का नाम बदलकर उस माह का नाम अगस्त किया। उस समय अगस्त 30 दिन का होता था पर-"सीजर से मैं छोटा नहीं", यह दिखाने के लिए फरवरी के माह जो उस समय 29 दिन का होता था जो एक दिन लेकर अगस्त भी 31 दिन का किया। तब से मास और दिन की संख्या वैसी ही चली आ रही है।


ग्रेगोरियन कैलेंडर - 16वीं सदी में जूलियन कैलेन्डर में 10 दिन बढ़ गए और चर्च फेस्टीवल ईस्टर आदि गड़बड़ आने लगे, तब पोप ग्रेगोरी त्रयोदश ने 1582 के वर्ष में इसे ठीक करने के लिए यह हुक्म जारी किया कि 4 अक्तूबर को आगे 15 अक्तूबर माना जाए। वर्ष का आरम्भ 25 मार्च की बजाय 1 जनवरी से करने को कहा। रोमन कैथोलिकों ने पोप के आदेश को तुरन्त माना, पर प्रोटेस्टेंटों ने धीरे-धीरे माना। ब्रिाटेन जूलियन कैलेंडर मानता रहा और 1752 तक उसमें 11 दिन का अंतर आ गया। अत: उसे ठीक करने के लिए 2 सितम्बर के बाद अगला दिन 14 सितम्बर कहा गया। उस समय लोग नारा लगाते थे "Criseus back our 11 days"। इग्लैण्ड के बाद बुल्गारिया ने 1918 में और ग्रीक आर्थोडाक्स चर्च ने 1924 में ग्रेगोरियन कैलेण्डर माना।


भारत में कालगणना का इतिहास (Indian time calculations)

भारतवर्ष में ग्रहीय गतियों का सूक्ष्म अध्ययन करने की परम्परा रही है तथा कालगणना पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य की गति के आधार पर होती रही तथा चंद्र और सूर्य गति के अंतर को पाटने की भी व्यवस्था अधिक मास आदि द्वारा होती रही है। संक्षेप में काल की विभिन्न इकाइयां एवं उनके कारण निम्न प्रकार से बताये गये-

दिन अथवा वार- सात दिन- पृथ्वी अपनी धुरी पर १६०० कि.मी. प्रति घंटा की गति से घूमती है, इस चक्र को पूरा करने में उसे २४ घंटे का समय लगता है। इसमें १२ घंटे पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सामने रहता है उसे अह: तथा जो पीछे रहता है उसे रात्र कहा गया। इस प्रकार १२ घंटे पृथ्वी का पूर्वार्द्ध तथा १२ घंटे उत्तरार्द्ध सूर्य के सामने रहता है। इस प्रकार १ अहोरात्र में २४ होरा होते हैं। ऐसा लगता है कि अंग्रेजी भाषा का ण्दृद्वद्ध शब्द ही होरा का अपभ्रंश रूप है। सावन दिन को भू दिन भी कहा गया।


सौर दिन-पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा 1 लाख कि.मी. प्रति घंटा की रफ्तार से कर रही है। पृथ्वी का 10 चलन सौर दिन कहलाता है।


चन्द्र दिन या तिथि- चन्द्र दिन को तिथि कहते हैं। जैसे एकम्, चतुर्थी, एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि। पृथ्वी की परिक्रमा करते समय चन्द्र का 12 अंश तक चलन एक तिथि कहलाता है।


सप्ताह- सारे विश्व में सप्ताह के दिन व क्रम भारत वर्ष में खोजे गए क्रम के अनुसार ही हैं। भारत में पृथ्वी से उत्तरोत्तर दूरी के आधार पर ग्रहों का क्रम निर्धारित किया गया, यथा- शनि, गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुद्ध और चन्द्रमा। इनमें चन्द्रमा पृथ्वी के सबसे पास है तो शनि सबसे दूर। इसमें एक-एक ग्रह दिन के 24 घंटों या होरा में एक-एक घंटे का अधिपति रहता है। अत: क्रम से सातों ग्रह एक-एक घंटे अधिपति, यह चक्र चलता रहता है और 24 घंटे पूरे होने पर अगले दिन के पहले घंटे का जो अधिपति ग्रह होगा, उसके नाम पर दिन का नाम रखा गया। सूर्य से सृष्टि हुई, अत: प्रथम दिन रविवार मानकर ऊपर क्रम से शेष वारों का नाम रखा गया।


निम्न तालिका से सातों दिनों के क्रम को हम सहज समझ सकते हैं- 

चन्द्र
बुध
शुक्र
सूर्य
मंगल
बृह.
शनि
रवि 
-
-
-
११
१०
१८
१७
१६
१५
१४
१३
१२
सोम 
२४
२३
२२
२१
२०
१९
१५
१४
१३
१२
११
१०
२२
२१
२०
१९
१८
१७
१६
मंगल 
२४
२३
१२
११
१०
१९
१८
१७
१६
१५
१४
१३
बुध 
२४
२३
२२
२१
२०
१६
१५
१४
१३
१२
११
१०
२३
२२
२१
२०
१९
१८
१७
बृह.
२४
१३
१२
११
१०
२०
१९
१८
१७
१६
१५
१४
शुक्र 
२४
२३
२२
२१
१०
१७
१६
१५
१४
१३
१२
११
२४
२३
२२
२१
२०
१९
१८
                                                                            शनि १ 
पक्ष-पृथ्वी की परिक्रमा में चन्द्रमा का १२ अंश चलना एक तिथि कहलाता है। अमावस्या को चन्द्रमा पृथ्वी तथा सूर्य के मध्य रहता है। इसे ० (अंश) कहते हैं। यहां से १२ अंश चलकर जब चन्द्रमा सूर्य से १८० अंश अंतर पर आता है, तो उसे पूर्णिमा कहते हैं। इस प्रकार एकम्‌ से पूर्णिमा वाला पक्ष शुक्ल पक्ष कहलाता है तथा एकम्‌ से अमावस्या वाला पक्ष कृष्ण पक्ष कहलाता है।

मास- कालगणना के लिए आकाशस्थ २७ नक्षत्र माने गए (१) अश्विनी (२) भरणी (३) कृत्तिका (४) रोहिणी (५) मृगशिरा (६) आर्द्रा (७) पुनर्वसु (८) पुष्य (९) आश्लेषा (१०) मघा (११) पूर्व फाल्गुन (१२) उत्तर फाल्गुन (१३) हस्त (१४) चित्रा (१५) स्वाति (१६) विशाखा (१७) अनुराधा (१८) ज्येष्ठा (१९) मूल (२०) पूर्वाषाढ़ (२१) उत्तराषाढ़ (२२) श्रवणा (२३) धनिष्ठा (२४) शतभिषाक (२५) पूर्व भाद्रपद (२६) उत्तर भाद्रपद (२७) रेवती।


२७ नक्षत्रों में प्रत्येक के चार पाद किए गए। इस प्रकार कुल १०८ पाद हुए। इनमें से नौ पाद की आकृति के अनुसार १२ राशियों के नाम रखे गए, जो निम्नानुसार हैं-


(१) मेष (२) वृष (३) मिथुन (४) कर्क (५) सिंह (६) कन्या (७) तुला (८) वृश्चिक (९) धनु (१०) मकर (११) कुंभ (१२) मीन। पृथ्वी पर इन राशियों की रेखा निश्चित की गई, जिसे क्रांति कहते है। ये क्रांतियां विषुव वृत्त रेखा से २४ उत्तर में तथा २४ दक्षिण में मानी जाती हैं। इस प्रकार सूर्य अपने परिभ्रमण में जिस राशि चक्र में आता है, उस क्रांति के नाम पर सौर मास है। यह साधारणत: वृद्धि तथा क्षय से रहित है।


चन्द्र मास- जो नक्षत्र मास भर सायंकाल से प्रात: काल तक दिखाई दे तथा जिसमें चन्द्रमा पूर्णता प्राप्त करे, उस नक्षत्र के नाम पर चान्द्र मासों के नाम पड़े हैं- (१) चित्रा (२) विशाखा (३) ज्येष्ठा (४) अषाढ़ा (५) श्रवण (६) भाद्रपद (७) अश्विनी (८) कृत्तिका (९) मृगशिरा (१०) पुष्य (११) मघा (१२) फाल्गुनी। अत: इसी आधार पर चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विनी, कृत्तिका, मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन-ये चन्द्र मासों के नाम पड़े।


उत्तरायण और दक्षिणायन-पृथ्वी अपनी कक्षा पर २३  अंश उत्तर पश्चिमी में झुकी हुई है। अत: भूमध्य रेखा से २३  अंश उत्तर व दक्षिण में सूर्य की किरणें लम्बवत्‌ पड़ती हैं। सूर्य किरणों का लम्बवत्‌ पड़ना संक्रान्ति कहलाता है। इसमें २३ अंश उत्तर को कर्क रेखा कहा जाता है तथा दक्षिण को मकर रेखा कहा जाता है। भूमध्य रेखा को ०० अथवा विषुव वृत्त रेखा कहते हैं। इसमें कर्क संक्रान्ति को उत्तरायण एवं मकर संक्रान्ति को दक्षिणायन कहते हैं।


वर्षमान- पृथ्वी सूर्य के आस-पास लगभग एक लाख कि.मी. प्रति घंटे की गति से १६६०००००० कि.मी. लम्बे पथ का ३६५  दिन में एक चक्र पूरा करती है। इस काल को ही वर्ष माना गया।



युगमान- 4,32,000 वर्ष में सातों ग्रह अपने भोग और शर को छोड़कर एक जगह आते हैं। इस युति के काल को कलियुग कहा गया। दो युति को द्वापर, तीन युति को त्रेता तथा चार युति को सतयुग कहा गया। चतुर्युगी में सातों ग्रह भोग एवं शर सहित एक ही दिशा में आते हैं।


वर्तमान कलियुग का आरंभ भारतीय गणना से ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकेंड पर हुआ था। उस समय सभी ग्रह एक ही राशि में थे। इस संदर्भ में यूरोप के प्रसिद्ध खगोलवेत्ता बेली का कथन दृष्टव्य है-


"हिन्दुओं की खगोलीय गणना के अनुसार विश्व का वर्तमान समय यानी कलियुग का आरम्भ ईसा के जन्म से 3102 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकेंड पर हुआ था। इस प्रकार यह कालगणना मिनट तथा सेकेण्ड तक की गई। आगे वे यानी हिन्दू कहते हैं, कलियुग के समय सभी ग्रह एक ही राशि में थे तथा उनके पञ्चांग या टेबल भी यही बताते हैं। ब्राहृणों द्वारा की गई गणना हमारे खगोलीय टेबल द्वारा पूर्णत: प्रमाणित होती है। इसका कारण और कोई नहीं, अपितु ग्रहों के प्रत्यक्ष निरीक्षण के कारण यह समान परिणाम निकला है।"। (Theogony of Hindus, by Bjornstjerna P. 34) यहाँ देखें 


वैदिक ऋषियों के अनुसार वर्तमान सृष्टि पंच मण्डल क्रम वाली है। चन्द्र मंडल, पृथ्वी मंडल, सूर्य मंडल, परमेष्ठी मंडल और स्वायम्भू मंडल। ये उत्तरोत्तर मण्डल का चक्कर लगा रहे हैं।

जैसी चन्द्र प्रथ्वी के, प्रथ्वी सूर्य के , सूर्य परमेष्ठी के, परमेष्ठी स्वायम्भू के|  
चन्द्र की प्रथ्वी की एक परिक्रमा -> एक मास 
प्रथ्वी की सूर्य की एक परिक्रमा -> एक वर्ष 
सूर्य की परमेष्ठी की एक परिक्रमा ->एक मन्वन्तर 
परमेष्ठी की स्वायम्भू की एक परिक्रमा ->एक कल्प
मन्वन्तर मान- सूर्य मण्डल के परमेष्ठी मंडल (आकाश गंगा) के केन्द्र का चक्र पूरा होने पर उसे मन्वन्तर काल कहा गया। इसका माप है 30,67,20,000 (तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार वर्ष। एक से दूसरे मन्वन्तर के बीच 1 संध्यांश सतयुग के बराबर होता है। अत: संध्यांश सहित मन्वन्तर का माप हुआ 30 करोड़ 84 लाख 48 हजार वर्ष। आधुनिक मान के अनुसार सूर्य 25 से 27 करोड़ वर्ष में आकाश गंगा के केन्द्र का चक्र पूरा करता है।

कल्प- परमेष्ठी मंडल स्वायम्भू मंडल का परिभ्रमण कर रहा है। यानी आकाश गंगा अपने से ऊपर वाली आकाश गंगा का चक्कर लगा रही है। इस काल को कल्प कहा गया। यानी इसका माप है 4 अरब 32 करोड़ वर्ष (4,32,00,00,000)। इसे ब्रह्मा का एक दिन कहा गया। जितना बड़ा दिन, उतनी बड़ी रात, अत: ब्रह्मा का अहोरात्र यानी 864 करोड़ वर्ष हुआ।


ब्रह्मा का वर्ष यानी 31 खरब 10 अरब 40 करोड़ वर्ष

ब्रह्मा की 100 वर्ष की आयु अथवा ब्रह्माण्ड की आयु- 31 नील 10 अरब 40 अरब वर्ष (31,10,40,000000000 वर्ष)

भारतीय ऋषियों  की इस गणना को देखकर यूरोप के प्रसिद्ध ब्रह्माण्ड विज्ञानी

Carl Sagan ने अपनी पुस्तक "Cosmos" में कहा "विश्व में हिन्दू धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है जो इस विश्वास पर समर्पित है कि इस ब्रह्माण्ड में उत्पत्ति और क्षय की एक सतत प्रक्रिया चल रही है और यही एक धर्म है, जिसने समय के सूक्ष्मतम से लेकर बृहत्तम माप, जो समान्य दिन-रात से लेकर 8 अरब 64 करोड़ वर्ष के ब्राहृ दिन रात तक की गणना की है, जो संयोग से आधुनिक खगोलीय मापों के निकट है। यह गणना पृथ्वी व सूर्य की उम्र से भी अधिक है तथा इनके पास और भी लम्बी गणना के माप है।" कार्ल सेगन ने इसे संयोग कहा है यह ठोस ग्रहीय गणना पर आधारित है। Cosmos यहाँ से प्राप्त कर सकते है|
http://www.hindu-blog.com/2007/04/hindu-concept-of-beginning-and-end-of.html

ऋषियों की अद्भुत खोज

हमारे पूर्वजों ने जहां खगोलीय गति के आधार पर काल का मापन किया, वहीं काल की अनंत यात्रा और वर्तमान समय तक उसे जोड़ना तथा समाज में सर्वसामान्य व्यक्ति को इसका ध्यान रहे इस हेतु एक अद्भुत व्यवस्था भी की थी, जिसकी ओर साधारणतया हमारा ध्यान नहीं जाता है। हमारे देश में कोई भी कार्य होता हो चाहे वह भूमिपूजन हो, वास्तुनिर्माण का प्रारंभ हो- गृह प्रवेश हो, जन्म, विवाह या कोई भी अन्य मांगलिक कार्य हो, वह करने के पहले कुछ धार्मिक विधि करते हैं। उसमें सबसे पहले संकल्प कराया जाता है। यह संकल्प मंत्र यानी अनंत काल से आज तक की समय की स्थिति बताने वाला मंत्र है। इस दृष्टि से इस मंत्र के अर्थ पर हम ध्यान देंगे तो बात स्पष्ट हो जायेगी।

संकल्प मंत्र में कहते हैं.... 

ॐ अस्य श्री विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्राहृणां द्वितीये परार्धे
अर्थात् महाविष्णु द्वारा प्रवर्तित अनंत कालचक्र में वर्तमान ब्रह्मा की आयु का द्वितीय परार्ध-वर्तमान ब्रह्मा की आयु के 50 वर्ष पूरे हो गये हैं।
श्वेत वाराह कल्पे-कल्प याने ब्रह्मा के 51वें वर्ष का पहला दिन है।

वैवस्वतमन्वंतरे- ब्रह्मा के दिन में 14 मन्वंतर होते हैं उसमें सातवां मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।


अष्टाविंशतितमे कलियुगे- एक मन्वंतर में 71 चतुर्युगी होती हैं, उनमें से 28वीं चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है।


कलियुगे प्रथमचरणे- कलियुग का प्रारंभिक समय है।


कलिसंवते या युगाब्दे- कलिसंवत् या युगाब्द वर्तमान में 5104 चल रहा है।


जम्बु द्वीपे, ब्रह्मावर्त देशे, भारत खंडे- देश प्रदेश का नाम


अमुक स्थाने - कार्य का स्थान

अमुक संवत्सरे - संवत्सर का नाम
अमुक अयने - उत्तरायन/दक्षिणायन
अमुक ऋतौ - वसंत आदि छह ऋतु हैं
अमुक मासे - चैत्र आदि 12 मास हैं
अमुक पक्षे - पक्ष का नाम (शुक्ल या कृष्ण पक्ष)
अमुक तिथौ - तिथि का नाम
अमुक वासरे - दिन का नाम
अमुक समये - दिन में कौन सा समय
उपरोक्त में अमुक के स्थान पर क्रमश : नाम बोलने पड़ते है ।
जैसे अमुक स्थाने : में जिस स्थान पर अनुष्ठान किया जा रहा है उसका नाम बोल जाता है ।
उदहारण के लिए दिल्ली स्थानेग्रीष्म ऋतौ आदि  |

अमुक - व्यक्ति - अपना नाम, फिर पिता का नाम, गोत्र तथा किस उद्देश्य से कौन सा काम कर रहा है, यह बोलकर संकल्प करता है।


इस प्रकार जिस समय संकल्प करता है, उस समय से अनंत काल तक का स्मरण सहज व्यवहार में भारतीय जीवन पद्धति में इस व्यवस्था के द्वारा आया है।

Wednesday, June 12, 2013

अशोक कैंथ के प्रयास रंग लाए

चित्रकार द्वारा बनायी अशोक वाटिका की एक काल्पनिक झांकी

और यह है श्रीलंका के सीता एलिया गांव में अशोक वाटिका का बाहरी दृश्य


मंदिर में जीर्णोद्धार कार्य चल रहा है
                                       

जिस तरह पवनपुत्र हनुमान को माता सीता जी की खोज-खबर लाने के लिए सात योजन समुद्र लांघना पड़ा और राक्षसों से लोहा लेना पड़ा था, ठीक उसी प्रकार श्रीलंका स्थित माता सीता जी स्मृति स्थली को विधर्मियों से मुक्त करवाने के लिए पंजाब के धर्मनिष्ठ पुत्र श्री अशोक कैंथ को अनेक बाधाओं को लांघना पड़ा। उनके प्रयासों व श्रीलंका सरकार के सहयोग से आज रावण की अशोक वाटिका सनातनधर्मियों के अधिकार क्षेत्र में है। वहां स्थित प्राचीन मंदिर के पुनरुद्वार का काम भी शुरू हो चुका है। अब तक प्रचार से दूर चुपचाप तरीके से अशोक वाटिका मुक्ति के कार्य में लगे श्री कैंथ ने पहली बार मीडिया के सामने इसका खुलासा किया ताकि अभी तक लगभग गुमनाम रहे इस तीर्थ का पुण्य दुनिया के लोग भी उठा सकें। अमरीका की अंतरिक्ष एजेंसी "नासा" द्वारा खोजे गए राम सेतु के बाद अब श्री कैंथ द्वारा खोजे गए साक्ष्यों से रामायण की प्रमाणिकता को और बल मिला है।
उल्लेखनीय है कि श्रीलंका स्थित अशोक वाटिका वह तीर्थस्थान है जहां पर हरण के बाद लंकापति रावण ने माता सीता को बंदी बनाकर रखा था। हर्ष की बात है कि यह स्थल आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है और यहां माता सीता के अतिरिक्त महाबली हनुमान द्वारा की गई लीलाओं के कई चिन्ह भी मौजूद हैं। इस स्थल के बारे में स्थानीय निवासियों के अतिरिक्त बहुत कम लोग इसके बारे में जानकारी रखते हैं।
पंजाब में फगवाड़ा नगर के पास छोटे से कस्बे बंगा के निवासी श्री अशोक कैंथ लगभग 15 साल पहले कुवैत गए और वहां न्याय मंत्रालय के तहत इलेक्ट्रिक सुपरवाइजर की नौकरी की। नवम्बर 2004 में वह कुवैत से भारत पहुंचे। वे कुछ दिनों के लिए बीच में श्रीलंका में भी रुके थे। यहां उनके मन में विचार कौंधा कि हो न हो यह श्रीलंका वही रावण की लंका है जिसका वर्णन रामायण में किया गया है। उनमें रामायणकालीन जानकारियां व स्थल खोजने की जिज्ञासा पैदा हुई। वे कोलंबो स्थित नटराजन मंदिर के पुजारी स्वामी रामटीक से मिले और उन्होंने माता सीता जी के चरणों से पावन हुई अशोक वाटिका व अन्य पौराणिक स्थलों की चर्चा की। स्वामी जी ने उनको अशोक वाटिका के बारे में बताया। उसके बाद श्री कैंथ अशोक वाटिका के बारे में अधिक जानने के लिए लगभग ग्यारह बार श्रीलंका गए और आखिरकार उस जगह पहुंच ही गए जहां राक्षसी त्रिजटा ने माता सीता की धर्ममाता का कर्तव्य निभाया था। यह स्थान कोलंबो से कैंडी शहर की ओर जाने वाली सड़क पर दो सौ किलोमीटर दूर स्थित नुआर एलिया नामक कस्बे से सात किलोमीटर पश्चिम में सीता एलिया के नाम से जाना जाता है। इस जगह पर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में एक प्राचीन मंदिर है जिसे स्थानीय भाषा में सीता अम्मा कोविल (सीता माता का मन्दिर) कहते हैं। वर्णन मिलता है कि अशोक वाटिका बहुत मनोरम थी और यह बात आज भी सत्य साबित होती है। यहां आज भी चारों ओर प्रकृति के मनोरम दृश्य हैं। पहाड़ी क्षेत्र में स्थित अशोक वाटिका चारों ओर से सुगंधित पेड़ों-लताओं से घिरी है और यहां बेहद दुर्लभ जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं। परन्तु मंदिर की दुर्दशा को देखकर व्यथित मन से श्री कैंथ भारत लौटे और तब उन्होंने संकल्प किया कि वे मंदिर का पुनरोद्धार अवश्य करवाएंगे। इस काम में सहयोग के लिए उन्होंने भारत आकर देश के गण्यमान्य लोगों, जैसे- श्री अशोक सिंहल, श्री केदारनाथ साहनी, श्री विष्णु हरि डालमिया, श्री अमिताभ बच्चन, सूर्या रोशनी के स्वामी श्री बी.डी. अग्रवाल, मुगल महल होटल श्रृंखला के श्री अशोक कालड़ा, कनाडा मूल के कुवैत स्थित उद्योगपति श्री अशोक कुमार कैंथ, फिल्मी सितारों, संतों-महात्माओं, लेखकों, विद्वानों, समाचार पत्रों के संपादकों को पत्र लिखे। उनको इन पत्रों का सकारात्मक उत्तर मिला।
श्री कैंथ ने अपने इस उद्देश्य के लिए श्रीलंका के सेंट्रल प्रोविंस के मुख्यमंत्री श्री राधाकृष्ण और कृषि मंत्री श्री मुत्थु शिवलिंगम से चर्चा की जो काफी सकारात्मक रही। श्री कैंथ को बताया गया कि श्रीलंका सरकार ने इस मंदिर के लिए 1996 में एक न्यास की स्थापना की थी, परन्तु धनाभाव के कारण पुनरोद्धार का काम शुरु नहीं हो पाया है। लेकिन श्रीलंका के उक्त राजनेताओं ने मंदिर निर्माण में हरसंभव सहायता व सहयोग देने का आश्वासन दिया। विगत वर्ष इस संबंध में श्री कैंथ श्रीलंका के राष्ट्रपति श्री महेंद्र राजपक्षे से भी मिले और उनको मंदिर निर्माण संबंधी जानकारी दी। वहां भारतीय राजदूत श्रीमती निरुपमा राव ने भी श्री कैंथ को हरसंभव सहायता देने का आश्वासन दिया। राजनीतिक आश्वासन के बाद भी श्री कैंथ के इस पुण्य कार्य में सभी बाधाएं दूर नहीं हुई थीं, क्योंकि इस मंदिर पर वहां के मुस्लिम समुदाय का कब्जा था और वे वहां मांस-मदिरा का सेवन कर हर रोज मंदिर की पवित्रता भंग करते थे। इसके अलावा भी वहां की 46 से अधिक ईसाई व अन्य संस्थाओं ने मंदिर पुनरोद्धार के काम का यह कहकर विरोध करना शुरु कर दिया था कि इससे क्षेत्र में हिन्दुत्व को प्रोत्साहन मिलेगा। श्री कैंथ घबराए नहीं और धीरे-धीरे सभी बाधाओं को पार कर लिया गया। आज मंदिर पुनरोद्धार का काम जारी है। श्री कैंथ के अनुसार संभवत: आने वाले नवरात्रों में ही बंगा कस्बे में विशाल समारोह आयोजित करके मंदिर के लिए देव प्रतिमाएं भेजी जाएंगी। इस कार्यक्रम में श्रीलंका के सेंट्रल प्रोविंस के मुख्यमंत्री श्री राधाकृष्ण या कृषि मंत्री श्री मुत्थु शिवलिंगम पधारेंगे और प्रतिमाएं उन्हें सुपुर्द की जाएंगी। इसके लिए बंगा में श्री अशोक वाटिका (श्रीलंका) धार्मिक व्यवस्था सुधार कमेटी का गठन किया गया है, जिसमें स्वामी कृष्णानंद जी बीनेवाल को अध्यक्ष, श्री अशोक कैंथ को संयोजक, बाबा देवेन्द्र कौड़ा व शिव कौड़ा को प्रबंधक बनाया गया है। कार्यक्रम की रूपरेखा राज्य के जाने-माने राष्ट्रवादी पत्रकार डा. जवाहर धीर तैयार कर रहे हैं। सीता अम्मा कोविल मंदिर परिसर में रहने वाली दस महिलाओं को उद्योगपति श्री अशोक कुमार कैंथ द्वारा मासिक पेंशन देने की घोषणा की गई है और मंदिर में प्रसाद के लिए मुगल होटल समूह के प्रमुख श्री अशोक कुमार कालड़ा ने पांच सालों के लिए अनुबंध किया है।

Wednesday, June 5, 2013

हम भारतीय, सिकंदर?? को सिकंदर महान क्यों माने

हम भारतीय, सिकंदर ?? को सिकंदर महान क्यों माने

सिकंदर अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् अपने सौतेले व चचेरे भाइयों को कत्ल करने के बाद मेसेडोनिया के सिंहासन पर बैठा था। अपनी महत्वकन्क्षा के कारण वह विश्व विजय को निकला। अपने आसपास के विद्रोहियों का दमन करके उसने इरान पर आक्रमण किया,इरान को जीतने के बाद गोर्दियास को जीता । गोर्दियास को जीतने के बाद टायर को नष्ट कर डाला। बेबीलोन को जीतकर पूरे राज्य में आग लगवा दी। बाद में अफगानिस्तान के क्षेत्र को रोंद्ता हुआ सिन्धु नदी तक चढ़ आया।

सिकंदर को अपनी जीतों से घमंड होने लगा था । वह अपने को इश्वर का अवतार मानने लगा,तथा अपने को पूजा का अधिकारी समझने लगा। परंतु भारत में उसका वो मान मर्दन हुआ जो कि उसकी मौत का कारण बना।

सिन्धु को पार करने के बाद भारतt के तीन छोटे छोटे राज्य थे। १--,ताक्स्शिला जहाँ का राजा अम्भी था। २--पोरस। ३--अम्भिसार ,जो की काश्मीर के चारो और फैला हुआ था। अम्भी का पुरु से पुराना बैर था,इसलिए उसने सिकंदर से हाथ मिला लिया। अम्भिसार ने भी तठस्त रहकर सिकंदर की राह छोड़ दी, परंतु भारतमाता के वीर पुत्र पुरु ने सिकंदर से दो-दो हाथ करने का निर्णय कर लिया। आगे के युद्ध का वर्णन में यूरोपीय इतिहासकारों के वर्णन को ध्यान में रखकर करूंगा। सिकंदर ने आम्भी की साहयता से सिन्धु पर एक स्थायी पुल का निर्माण कर लिया।
प्लुतार्च के अनुसार,"२०,००० पैदल व १५००० घुड़सवार सिकंदर की सेना पुरु की सेना से बहुत अधिक थी,तथा सिकंदर की साहयता आम्भी की सेना ने भी की थी। "

कर्तियास लिखता है की, "सिकंदर झेलम के दूसरी और पड़ाव डाले हुए था। सिकंदर की सेना का एक भाग झेहलम नदी के एक द्वीप में पहुच गया। पुरु के सैनिक भी उस द्वीप में तैरकर पहुच गए। उन्होंने यूनानी सैनिको के अग्रिम दल पर हमला बोल दिया। अनेक यूनानी सैनिको को मार डाला गया। बचे कुचे सैनिक नदी में कूद गए और उसी में डूब गए। "
बाकि बची अपनी सेना के साथ सिकंदर रात में नावों के द्वारा हरनपुर से ६० किलोमीटर ऊपर की और पहुच गया। और वहीं से नदी को पार किया। वहीं पर भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्ध में पुरु का बड़ा पुत्र वीरगति को प्राप्त हुआ।

एरियन लिखता है कि,"भारतीय युवराज ने अकेले ही सिकंदर के घेरे में घुसकर सिकंदर को घायल कर दिया और उसके घोडे 'बुसे फेलास 'को मार डाला।"
ये भी कहा जाता है की पुरु के हाथी दल-दल में फंस गए थे,तो कर्तियास लिखता है कि,"इन पशुओं ने घोर आतंक पैदा कर दिया था। उनकी भीषण चीत्कार से सिकंदर के घोडे न केवल डर रहे थे बल्कि बिगड़कर भाग भी रहे थे। ----------------अनेको विजयों के ये शिरोमणि अब ऐसे स्थानों की खोज में लग गए जहाँ इनको शरण मिल सके। सिकंदर ने छोटे शास्त्रों से सुसज्जित सेना को हाथियों से निपटने की आज्ञा दी। इस आक्रमण से चिड़कर हाथियों ने सिकंदर की सेना को अपने पावों में कुचलना शुरू कर दिया।"
वह आगे लिखता है कि,"सर्वाधिक ह्रदयविदारक द्रश्य यह था कि, यह मजबूत कद वाला पशु यूनानी सैनिको को अपनी सूंड सेपकड़ लेता व अपने महावत को सोंप देता और वो उसका सर धड से तुंरत अलग कर देता। --------------इसी प्रकार सारा दिन समाप्त हो जाता,और युद्ध चलता ही रहता। "
इसी प्रकार दियोदोरस लिखता है की,"हाथियों में अपार बल था,और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए। अपने पैरों के तले उन्होंने बहुत सारे यूनानी सैनिको को चूर-चूर कर दिया।
कहा जाता है की पुरु ने अनाव्यशक रक्तपात रोकने के लिए सिकंदर को अकेले ही निपटने का प्रस्ताव रक्खा था। परन्तु सिकंदर ने भयातुर उस वीर प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।
इथोपियाई महाकाव्यों का संपादन करने वाले श्री इ० ए० दब्ल्यु०बैज लिखते है की,"जेहलम के युद्ध में सिकंदर की अश्व सेना का अधिकांश भाग मारा गया। सिकंदर ने अनुभव किया कि यदि में लडाई को आगे जारी रखूँगा,तो पूर्ण रूप से अपना नाश कर लूँगा।अतः उसने युद्ध बंद करने की पुरु से प्रार्थना की। भारतीय परम्परा के अनुसार पुरु ने शत्रु का वद्ध नही किया। इसके पश्चात संधि पर हस्ताक्षर हुए,और सिकंदर ने पुरु को अन्य प्रदेश जीतने में सहायता की"।
बिल्कुल साफ़ है की प्राचीन भारत की रक्षात्मक दिवार से टकराने के बाद सिकंदर का घमंड चूर हो चुका था। उसके सैनिक भी डरकर विद्रोह कर चुके थे । तब सिकंदर ने पुरु से वापस जाने की आज्ञा मांगी। पुरु ने सिकंदर को उस मार्ग से जाने को मना कर दिया जिससे वह आया था। और अपने प्रदेश से दक्खिन की और से जाने का मार्ग दिया।
जिन मार्गो से सिकंदर वापस जा रहा था,उसके सैनिको ने भूख के कारण राहगीरों को लूटना शुरू कर दिया।इसी लूट को भारतीय इतिहास में सिकंदर की दक्खिन की और की विजय लिख दिया। परंतु इसी वापसी में मालवी नामक एक छोटे से भारतीय गणराज्य ने सिकंदर की लूटपाट का विरोध किया।इस लडाई में सिकंदर बुरी तरह घायल हो गया।
प्लुतार्च लिखता है कि,"भारत में सबसे अधिक खुन्कार लड़ाकू जाती मलावी लोगो के द्वारा सिकंदर के टुकड़े टुकड़े होने ही वाले थे,---------------उनकी तलवारे व भाले सिकंदर के कवचों को भेद गए थे।और सिकंदर को बुरी तरह से आहात कर दिया।शत्रु का एक तीर उसका बख्तर पार करके उसकी पसलियों में घुस गया।सिकंदर घुटनों के बल गिर गया। शत्रु उसका शीश उतारने ही वाले थे की प्युसेस्तास व लिम्नेयास आगे आए। किंतु उनमे से एक तो मार दिया गया तथा दूसरा बुरी तरह घायल हो गया।"
इसी भरी markat में सिकंदर की गर्दन पर एक लोहे की lathi का प्रहार हुआ और सिकंदर अचेत हो गया। उसके अन्ग्रक्षक उसी अवस्था में सिकंदर को निकाल ले गए। भारत में सिकंदर का संघर्ष सिकंदर की मोत का कारण बन गया।
अपने देश वापस जाते हुए वह बेबीलोन में रुका। भारत विजय करने में उसका घमंड चूर चूर हो गया। इसी कारण वह अत्यधिक मद्यपान करने लगा,और ज्वर से पीड़ित हो गया। तथा कुछ दिन बाद उसी ज्वर ने उसकी जान ले ली।
स्पष्ट रूप से पता चलता है कि सिकंदर भारत के एक भी राज्य को नही जीत पाया । परंतू पुरु से इतनी मार खाने के बाद भी इतिहास में जोड़ दिया गया कि सिकंदर ने पुरु पर जीत हासिल की।भारत में भी महान राजा पुरु की जीत को पुरु की हार ही बताया जाता है।यूनान सिकंदर को महान कह सकता है लेकिन भारतीय इतिहास में सिकंदर को नही बल्कि उस पुरु को महान लिखना चाहिए जिन्होंने एक विदेशी आक्रान्ता का मानमर्दन किया।

Tuesday, October 30, 2012

क्या ये मुगलिस्तान की तरफ़ पाकिस्तान के बढ़्ते कदम हैं.....


----शेयर करे मित्रो ताकि हर हिन्दुस्तानी जान सके-----
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घुसपैठियों की शरणस्थली-----
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पिछले दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद म्यांमार के हजारों अवैध घुसपैठियों को दिल्ली से बाहर निकालना संभव हुआ, जिन्हें दिल्ली
पुलिस ने वसंत कुंज के समीप सुल्तानगढ़ी में शरण लेने की अनुमति दी थी, किंतु सरकार ने उन्हें देश से निकालने की अब तक कोई घोषणा नहीं की है। सेक्युलर दलों के सहयोग से देश में अब भी करीब डेढ़ करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए न केवल सुरक्षित जिंदगी गुजार रहे हैं, बल्कि राशन कार्ड, मतदाता कार्ड बनवाने में भी सफल हो रहे हैं।

इसलिए रोहयांग म्यांमारी घुसपैठियों की भारत में स्थायी रूप से बसने की आशंका निराधार नहीं है। रोहयांग म्यांमारी बांग्लादेश के चटगांव में हजारोंबौद्ध चकमाओं के नरसंहार के अपराधी हैं, जिन्हें बांग्लादेश और म्यांमार, दोनों ने इस जघन्य कांड के लिए खदेड़ भगाया है। रोहयांग म्यांमारी नागरिक पिछले दिनों हजारों की संख्या में दिल्ली स्थित संयुक्त राष्ट्र के दफ्तर के सामने एकत्रित हुए और उससे भारत में शरणार्थी का दर्जा दिलाने की मांग की।

भारत को रक्तरंजित करने में लगे विभिन्न आतंकी संगठनों के खिलाफ एक सशक्त व मजबूत एनसीटीसी नामक एजेंसी का प्रस्ताव लाकर केंद्र सरकार राज्य सरकारों से रार ठाने बैठी है। मैंने पिछले दिनों राज्यसभा में यह मामला उठाया था और सरकार से जानना चाहा था कि आखिर बिना वीजा ये लोगदिल्ली कैसे धमक आए? उन्हें संरक्षण और समर्थन देने वाले कौन से व्यक्ति या संगठन हैं?

इन सवालों का सरकार के पास कोई जवाब नहीं था। हैदराबाद, पंजाब, जम्मू, जलालाबाद, मेरठ, दिल्ली और खुर्जा में हजारों रोहयांग म्यांमारी अवैध रूप से आ बसे और सरकार को कोई जानकारी ही नहीं है। हजारों की संख्या में म्यांमार से चलकर यदि ये दिल्ली पहुंचे हैं तो किसने इतने बड़े वर्ग का नेतृत्व किया, किसने इनका वित्तपोषण किया और इन सबका समन्वय
आखिर किसने किया? गृहमंत्री ने खानापूर्ति के लिए जांच कराने की बात की, किंतु यह कैसी सरकार है, जो आतंकवाद से लड़ने के लिए अभूतपूर्व कारगर एजेंसी बनाने का दावा करती है और दूसरी ओर हजारों की संख्या में अवैध घुसपैठ की उसे जानकारी तक नहीं होती ?

क्या यह देश धर्मशाला है, जहां कभी बांग्लादेश से तो कभी म्यांमार से अवैध घुसपैठिए बेरोकटोक आ धमकते हैं और स्थानीय जनजीवन को अस्तव्यस्त करते हैं? क्या वोट बैंक की राजनीति के लिए इन अवैध घुसपैठियों को इसलिए शरणार्थी मान लेना चाहिए कि वे मजहब विशेष के हैं? रोहयांग म्यांमारी और बांग्लादेशी घुसपैठियों का भारत से दूर-दूर का संपर्क नहीं है, फिर भी उन्हें संरक्षण दिलाने के लिए सेक्युलर दलों का एक बड़ा तबका चिंताग्रस्त है,

किंतु उन हजारों हिंदुओं के लिए कोई फिक्रमंद दिखाई नहीं देता जो मजहबी चरमपंथ और हिंसा से खौफजदा होकर बांग्लादेश और पाकिस्तान से पलायन कर अपने वतन लौटे हैं। लाखों कश्मीरी पंडित अपने ही देश में बेगानों की तरह शरणार्थी शिविरों में जीवनयापन कर रहे हैं, किंतु उनकी घरवापसी की चिंता नहीं होती। क्यों? क्या इसलिए कि वे हिंदू हैं?

देश का विभाजन मजहबी जुनून के कारण हुआ। बड़े पैमाने पर रक्तपात हुआ। पाकिस्तान ने खुद को इस्लामी राष्ट्र के रूप में स्थापित कर लिया। 11 अगस्त, 1947 को मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान की संसद के माध्यम से यह भरोसा दिलाया था कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यक बराबरी के अधिकार सेसुरक्षित रहेंगे, किंतु उनके देहावसान से वह सपना ही रह गया। इसके बाद 1950 में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के बीच एक संधि हुई। इसमें भी भरोसा दिलाया गया कि विभाजन के बाद दोनों देश अपने-अपने अल्पसंख्यकों का विशेष ख्याल रखेंगे, किंतु आज स्थिति कैसी है?

भारत अपनी पंथनिरपेक्ष परंपरा के अनुसार सेक्युलर राष्ट्र है, जहां मुसलमानों को न केवल बहुसंख्यकों के बराबर अधिकार प्राप्त हैं, बल्कि वोट बैंक की राजनीति के कारण प्राय: सभी सेक्युलर दलों में उन्हें ज्यादा से च्यादा विशेषाधिकार, रियायतें और सुविधाएं दिलाने की होड़ लगी रहती है। वहीं पाकिस्तान में हिंदू और ईसाइयों की क्या स्थिति है ?

वहां उनके साथ तीसरे दर्जे के नागरिक की तरह व्यवहार होता है। पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हर महीने अकेले सिंध प्रांत में 20-25 हिंदू लड़कियों के अगवा करने, उनका जबरन मतांतरण कराने के बाद उनका मुस्लिम लड़कों से निकाह कराने की घटनाएं सामने आती हैं। दिल्ली स्थित विदेशी क्षेत्रीय निबंधन कार्यालय के अनुसार पाकिस्तान से भारत आने
वाले हिंदुओं की संख्या पिछले कुछ समय में तेजी से बढ़ी है।

हाल में रिंकल नामक एक हिंदू युवती के साथ जो हुआ वह पाकिस्तान में हिंदुओं की अवस्था को समझने के लिए काफी है। 26 मार्च को पाकिस्तानके मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी के समक्ष सिंध में अपने परिजनों के साथ रहने वाली 19 वर्षीय रिंकल कुमारी ने नावेद शाह नामक व्यक्ति पर अपने अपहरण का आरोप लगाते हुए उसे अपनी मां के संरक्षण में देने की गुहार लगाई। कोर्ट से जब पुलिस उसे खींचकर ले जा रही थी |

तो उसने बिलखते हुए मीडियाकर्मियों से कहा कि उसका जबरन मतांतरण औरनिकाह कराया गया है, किंतु 18 अप्रैल को मामले की सुनवाई के लिए जब वह दोबारा सर्वोच्च न्यायालय पहुंचीं तो उसने स्वेच्छा से मतांतरण और नावेद से निकाह करने की बात कबूल कर ली। कारण? सुनवाई के वक्त हजारों की संख्या में बंदूकधारियों का जमा होना। ऐसी अनेक रिंकलों की कहानी राजस्थान, गुजरात और पंजाब में शरणागत हिंदू परिवारों के सीनों में पैबस्त हैं, लेकिन जो स्वयंभू सेक्युलर दल पाकिस्तान के हिंदुओं के उत्पीड़न पर खामोश रहते हैं।
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[लेखक-बलबीर पुंज: ]