Friday, June 29, 2012

अष्टांग योग

किसी ने उत्साह से सूचना दी कि अब तो आधुनिक भौतिक वैज्ञानिकों ने भी खोज लिया है कि सृष्टि के आरम्भ में जो प्रचण्ड ध्वनि (Big Bang) हुई थी वह थी ॐ । हमारा प्रणव मन्त्र। सहसा बीकानेर के स्वामी संवित् सोमगिरिजी महाराज का स्मरण हुआ। स्वामीजी कहा करते थे ‘यदि आधुनिक विज्ञान हमारे प्राचीन मत के अनुसार खोज करता है तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अब भौतिकशास्त्र सही दिशा में चल रहा है। हमारे शास्त्र तो सदा ही सत्य है।’

प्राचीन भारतीय ऋषियों ने जीवन के सभी क्षेत्रों में पूर्ण अनुसंधान कर वैज्ञानिक जीवनचर्या का अविष्कार किया था। उन्होंने जीवन के सुक्ष्मतम अंगों को समग्रता से आत्मसात कर जीने की परिपूर्ण कला का विकास किया। इसे ही योग अथवा धर्म कहा गया। सुक्ष्म का स्थूल पर नियन्त्रण होता है। सृष्टि के इस सत्य को जान लेने के कारण स्थूल भौतिक विज्ञान के स्थान पर योगविद्या ने सुक्ष्म अंतःकरण के मनोविज्ञान पर अधिक कार्य किया।

आज से लगभग पांच हजार से भी अधिक वर्ष पूर्व महर्षि पंतजली ने योग को सुसंपादित कर एक दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने योग के अष्टांग (8अंग) का वर्णन पातंजल योग सुत्रों में किया। यम, निमय, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि ये योग के आठ अंग हैं। प्रथम अंग के अन्तर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये पांच यम जीवन के सत्य स्वरूप से साक्षात्कार करने वाले महाव्रत है। संकल्पपूर्वक, दीर्घकाल, निरन्तरता से इनका अभ्यास करने से व्यक्तिगत एवं समाज जीवन में धर्म प्रतिष्ठित होता है। इस साक्षात्कारी धर्म को जीवन-व्यवहार में उतारने हेतु पांच नियम है। ये आदर्श समाज रचना की कुंजी हैं शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर-प्रणिधान। इन्हीं दशगुणों को एकाध भेद के साथ मनु महाराज ने धर्म के दशलक्षण बताया है।

योग का तीसरा अंग है आसन। शरीर को स्थिर, संतुलित कर मन को सजग करने की विधि। मन द्वारा शरीर के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंगों का नियमन। इसके अभ्यास से द्वंद्वो पर स्वामित्व प्राप्त होता है| फिर सुख-दुःख, शीत-उष्ण, मान-अपमान जैसे द्वंद्व मानव को प्रताड़ित नहीं करते और संतुलित जीवन जीने का आनंद मिलाता है|  शरीर से सूक्ष्म है प्राण-जीवनी शक्ति। सूर्य से अन्न के माध्यम से श्वसन क्रिया द्वारा प्राप्त सूक्ष्म ऊर्जा प्राण ही है। श्वसन के द्वारा सजगता को सूक्ष्मता की ओर ले जाते हुए प्राण को शांत, संतुलित एवं सजग करते हुए उसका नियमन करना अर्थात् प्राणायाम। बहिर्मुख इन्द्रियों को अंतर्मुख कर उनके आहार को नियन्त्रित करना पांचवा अंग है प्रत्याहार।

अंतिम तीन अंग मन द्वारा मन के स्तर पर किए जाते है। महर्षि पतंजलि ने योग को ‘चित्त की वृतियों के निरोध’ के रूप में परिभाषित किया। यही योग का लक्ष्य है। चंचल मन में अनेक पर अनेक विचार अनेक दिशाओं में प्रचण्ड गति से कार्य करते है। जब हम एकाग्रता के साथ किसी विषय का अध्ययन करते है तब एक ही विषय पर एक दिशा में अनेक विचार कार्य करते है। सामान्यतः हमारा मन इन दो स्थितियों में कार्य करने का अभ्यस्त हो जाता है। धारणा इसके आगे का अभ्यास है। वह मन को योग्यता प्रदान करता है। योग्यता ध्यान में प्रवेश करने की। धारणा में हम एक विषय की दिशा में एक विचार को केन्द्रीकृत कर देते है अर्थात् मन में एक विचार की धारणा करते है। धारणा के अभ्यास में जब प्रयत्नभाव छूट जाता है तब ध्यान लग जाता है। ‘मैं धारणा कर रहा हूं।’ यह कर्तृत्व बोध जब विसर्जित होता है तब उस स्थिति को ध्यान कहते है। धारणा में तीन घटक है। धारणा का विषय, धारणा करने वाला विषयी और धारणा की प्रक्रिया। उदाहरण के लिए जब हम जप के द्वारा धारणा करते है तब जिस नाम का जप कर रहे है वह विषय। जप करने वाला साधक विषयी तथा जप करना यह प्रक्रिया। तीनों घटक क्रिया करते है तब वह धारणा है। अभ्यास करते करते जप की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। अब जप स्वतः होने लगता है। इसे अजप जप कहते है। अब केवल विषय और विषयी बचे। दोनों के संबंध का बोध कराती प्रक्रिया समाप्त हो गयी इस स्थिति को ध्यान कहते है। जब विषय-विषयी एक हो जाते है द्वैत समाप्त होता है तब अंतिम योग अंग उपलब्ध होता है-समाधि।

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